नाम पर झगड़ा
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यह समस्त ब्रह्माॅंड एक ही परम सत्ता की कल्पना का विस्तार है लेकिन अनेक लोग उसे अलग अलग नाम देकर अपने पसंद के नाम को ही सर्वश्रेष्ठ कहकर झगड़ते रहते हैं। यथार्थतः वे लोग यह नहीं जान पाते कि अपने अपने संज्ञानात्मक प्रक्षेप के अनुसार एक ही परमसत्ता को विभिन्न नाम दे देते हैं परंतु आध्यात्मिक साधक को इन नामों और उनसे जुड़ी महामनस्कता के झगड़े में नहीं पड़ना चाहिये क्योंकि इन सबके भीतर एक समान आत्मा रहती है।
हमने कई लोगों को ‘शिव‘, 'शक्ति ' और ‘नारायण‘ इन नामों पर बहस करते देखा है। यदि इनका विश्लेषण करके देखें तो पाटे हैं कि ‘शिव‘ का वास्तविक अर्थ है अखंडसत्ता और शक्ति‘ का अर्थ है क्रियात्मक सत्ता। शिव और शक्ति एक ही वास्तविकता के दो पक्ष हैं। किसी भी क्रिया में दो सिद्धान्त होते हैं एक ज्ञानात्मक और दूसरा क्रियात्मक। मानलो आप कोई मशीन चला रहे हैं, इसमें दो सिद्धान्त हैं एक मशीन को मस्तिष्क की सहायता से दिशा निर्देश देना, अर्थात् संज्ञानात्मक और दूसरा मासपेशियां जो संज्ञान के दिशा निर्देश पर मशीन संचालित करतीं हैं, अर्थात क्रियात्मकता। ब्रह्माॅंड भी संज्ञानात्मक सिद्धान्त और क्रियात्मक सिद्धान्त दोनों से मिलकर बना है। संज्ञानात्मक सिद्धान्त हैं परमपुरुष और क्रियात्मक सिद्धान्त है परमाप्रकृति। सिद्धान्ततः यह दो पृथक सत्ताओं के होने का आभास कराता है पर आन्तरिक रूप से वे एक ही हैं। शिव और शक्ति का सम्मिलित नाम है ब्रह्म। इसी प्रकार ‘‘नारायण‘‘। यह ‘नार‘ और ‘अयन‘ इन दो शब्दों से मिलकर बना है, और उसका आन्तरिक अर्थ है परमपुरुष। नार शब्द के संस्कृत में तीन अर्थ हैं, पहला है भक्ति, जैसे नारद माने भक्ति देने वाला। दूसरा अर्थ है पानी, और तीसरा अर्थ है प्रकृति अर्थात् परम क्रियात्मक शक्ति। और अयण माने आश्रय, इसलिये नारायण माने हुअा प्रकृति का आश्रय।परमक्रियात्मक शक्ति का आश्रय अर्थात् परमपुरुष। इसलिये शिव हुए परम चेतना, नारायण भी परमचेतना हैं अतः शिव और नारायण में कोई अंतर नहीं है।
इसी प्रकार कृष्ण और माधव। वास्तव मे सभी लोग अपने मानसिक विचारों को शब्दों में व्यक्त करने के लिये भाषा का सहारा लेते हैं । जैसे, किसी वस्तु को देखने पर उससे आने वाली तरंगों द्वारा आॅंखों के माध्यम से मन पर जो कंपन किया जाता है उसे अनुभव करते हुए व्यक्ति अपने शब्दों में व्यक्त करने का प्रयास करता है। देश काल और पात्र के अनुसार इस अभिव्यक्तिकरण में अन्तर आता जाता है और एक ही सत्ता अनेक नाम की हो जाती है। जैसे, किसी वस्तु से निकलने वाली तरंगें किसी स्थान और समय पर किसी व्यक्ति के द्वारा ‘धव‘ ‘धव‘ ‘धव‘ का अनुभव कराती हैं तो वह उसे ‘धवल‘ अर्थात् सफेद कहने लगता है, परंतु अन्य परिवेश और स्थान पर कोई व्यक्ति उन्हीं कंपनों को अपने मानसिक संवेदन में ‘व्ह‘ ‘व्ह‘ ‘व्ह‘ अनुभव करता है तो शब्दों में व्यक्त करने के लिये वह वातावरण के अनुसार ‘व्हाइट‘ कहने लगता है, अतः एक ही 'सफेद' रंग को अलग अलग मानसिक परिवेशों मे जन्मे व्यक्ति धवल या वाइट दो अलग अलग नाम दे देते हैं। इस प्रकार सभी द्रश्यमान पदार्थों का प्रारंभिक रूप से नाम दिया जाता है। फिर व्यवहार में इन्हीं शब्दों से वाक्य विन्यास और साहित्य जन्म लेता है। अब हम अन्य नाम ‘माधव‘ लेते हैं। संस्कृत में ‘मा‘ का अर्थ है इंद्रियाॅं। इसलिये जीभ को भी ‘मा‘ कहते हैं, और अन्य है परम क्रियात्मक सत्ता, परमा प्रकृति, लक्ष्मी। ‘धव‘ माने नियंत्रक या पति, इसी कारण जिस महिला का पति नहीं होता उसे विधवा कहते हैं। ‘धव‘ का अन्य अर्थ सफेद भी है। इसलिये माधव का मतलब हुआ जो परमा प्रकृति को नियंत्रित करता है अर्थात् परमपुरुष। ‘कृष्ण‘ का अर्थ है आकर्षण करने वाला, अतः वह जो विश्व ब्रह्माॅंड के संपूर्ण अस्तित्व को अपनी ओर खींच रहे हैं वह कृष्ण हैं। सभी जाने अंजाने उन्हीं के आकर्षण में बंधे हुए हैं इसलिये कृष्ण परमपुरुष हैं। इसप्रकार कृष्ण / माधव भी शिव और नारायण की तरह एक ही सत्ता को प्रदर्शित करते हैं।
अब प्रश्न उठता है कि क्या ‘राम‘ को भी इसी प्रकार समझाया जा सकता है? इसका उत्तर है , हाॅं।
‘राम‘ यानी, रमन्ति योगिनः यस्मिन् इति रामः अर्थात् जिसमें योगीगण रमते हैं वह राम। धातु ‘रम‘ और प्रत्यय ‘घईं ´ को मिलाकर राम बनता है जिसका अर्थ है परम सुन्दरता का आश्रय अर्थात् परमपुरुष। राम का अन्य अर्थ है, राति महीधरा राम अर्थात् अत्यंत चैंधियाने वाला, चमकदार अस्तित्व। परमपुरुष को सभी अत्यंत चमकदार अर्थात् प्रकाशवान मानते हैं। अन्य अर्थ है, रावणस्य मरणम् इति रामः। रावण क्या है? आप जानते हैं कि मानव मन की सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार की प्रवृृत्तियां होती हैं, केवल स्थूल प्रवृत्तियाॅं दस दिशाओं पूर्व, पश्चिम , उत्तर, दक्षिण, ईशान , वायव्य, नैरित्य, आग्नेय, ऊर्ध्व और अधः में अपना काम करती रहती हैं। इन दसों दिशाओं में भौतिक जगत की वस्तुओं की ओर मन के भटकने के कारण मन के भृष्ट होने की संभावना अधिक होती है अतः जीव मन की इस प्रकार की प्रवृत्तियों के साथ संयुक्त रहने को रावण कहते हैं। रावण को दस सिरों वाला इसीलिये माना गया है। अतः आध्यात्मिक उन्नति चाहने वाले साधक को क्या करना चाहिये? साधक को इन भृष्ट करने वाली, आत्मिक उन्नति के मार्ग में अंधेरा उत्पन्न करने वाली, प्रवृत्तियों से संघर्ष करना होगा अर्थात् रावण का वध करना होगा। रावणस्य मरणम् इति रामः, अतः साधक रावण को मारकर सार्वभौमिक सत्ता के सतत प्रवाह में आकर राम राज्य पाता है। इसलिये राम माने पुरुषोत्तम। रावण का प्रथम अक्षर ‘रा‘ मरणम का प्रथम अक्षर ‘म‘ इसलिये रावणस्य मरणम माने, "राम" क्योंकि जब आध्यात्मिक साधक राम का चिंतन करता है, रावण मर जाता है। इस प्रकार नारायण, शिव, माधव और राम एक ही हैं। इसलिये किसी को भी भगवान के नामों की महानता को लेकर झगड़ना नहीं चाहिये।
अब मन मे यह जिज्ञासा होती है कि क्या परमपुरुष के इन्हीं नामों को इष्टमंत्र कहा जाता है?
इसका उत्तर यह मिलता है कि यदि किसी व्यक्ति को कौलगुरु ने इन नामों में से किसी एक को शक्ति सम्पन्न कर उसके इष्ट मंत्र के रूप में दिया है तो उसके लिये वही सब कुछ है अन्य नाम किसी काम के नहीं। साधक के लिये सबसे महत्वपूर्ण उसका इष्ट मंत्र ही है, उसी के चिंतन मनन और निदिध्यासन से वह परम प्रकाश पायेगा। इष्टमंत्र प्रत्येक व्यक्ति का अलग अलग होता है जो उसके संस्कारों के अनुसार चयन किया जाकर गुरुकृपा से प्राप्त होता है। यह कार्य कौलगुरु ही करते हैं क्योंकि वे ही पुरष्चरण की क्रिया में प्रवीण होते हैं। पुरष्चरण का अर्थ है शब्दों को शक्ति सम्पन्न करने की क्षमता होना। अपने अपने इष्टमंत्र का श्वास प्रश्वास की सहायता से नियमित रूपसे जाप कारते रहने का इतना अभ्यास करना होता है कि यह जाप नींद में भी चलता रहे। इसे ही साधना कहते हैं। इस स्थिति को प्राप्त होने पर ओंकार (cosmic rhythm) के साथ अनुनाद स्थापित करने में कठिनाई नहीं होती। अनुनाद की यही स्थिति जब स्थिर या स्थायी हो जाती है तो इसे ही समाधि कहते हैं। शक्तिमान शब्द ही मंत्र कहलाते हैं जो कौलगुरु साधक को उसके संस्कारों के अनुसार इष्टमंत्र के रूप में कृपापूर्वक देते हैं और मंत्रचैतन्य हो जाने पर अर्थात् ओंकार के साथ अनुनाद स्थापित हो जाने पर, उन्हीं की कृपा से परमपुरुष से साक्षात्कार होता है। जिसे सक्षम गुरु से इष्टमंत्र मिल गया वही धन्य है उसी का जीवन सफल है। अन्य सब तो प्रदर्शन मात्र है।
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