For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

बदलते रहे है हिंदी कविता में संयोग शृंगार के प्रतिमान  ///    डॉ.गोपाल नारायण श्रीवास्तव

काव्य-शास्त्र के अनुसार वियोग शृंगार के चार प्रकार हैं –पूर्वराग, मान, प्रवास और करुण I इसकी दस दशायें होती हैं और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भरतमुनि ने जो 33 संचारी या व्यभिचारी भाव बताये हैं वे सब वियोग की दशा में आ जाते हैं I हिंदी  काव्य तो  वियोग के विदग्ध वर्णन से ही समृद्ध हुआ है I विरहाकुल राम को कौन भूल सकता है I शकुन्तला और सीता के वियोगजनित कष्ट किसे याद नहीं हैं I ‘सुजान’ के लिए अहर्निशि रोते ‘घनानंद’ को सबने पढ़ा है I जायसी का ‘नागमती विरह वर्णन‘ हिंदी  साहित्य की अमूल्य निधि माना जाता है I मैथिलीशरण गुप्त के ‘साकेत’ का सारा श्रेय उर्मिला के विरह-वर्णन को जाता है I हिंदी काव्य में विरह वर्णन कभी भदेश अथवा अश्लील नहीं    हुआ I  

काव्य में संयोग शृंगार की स्थिति कुछ भिन्न है I चूंकि इसमें रति और अभिसार का वर्णन अभीष्ट होता है अत: यहाँ पर सावधानी न बरतने से शब्द-चित्रों के भदेश हो जाने की संभावना रहती है I इस दृष्टि से तुलसएक अनुकरणीय कवि हैं I इन्होंने अपनी काव्य रचना में मर्यादा का बहुत ध्यान रखा I कालिदास की भांति वे शिव-पार्वती के संयोग शृंगार का वर्णन नहीं  करते I उनका कहना है कि  –

जगत मातु पितु संभु भवानी I तेहि शृंगार न कहउं बखानी II

 

        तुलसी ने राम और सीता के सदर्भ में भी संयोग शृंगार का कहीं चटक वर्णन नहीं    किया I सीता का सौन्दर्य वे बताते भी है तो कितने शब्द गौरव से और कितनी अलंकारिता से I ऐसे मर्यादित वर्णन से किसी भी सुकवि को ईर्ष्या हो सकती है -

सुन्दरता कंहु सुन्दर करई I छवि गृह दीप-शिखा जनु बरई II

 ऐसा प्रतीत होता है कि तुलसी ने कालिदास विषयक किंवदंती से सबक लिया है I ऐसा कहा जाता है कि कालिदास ने ‘कुमारसंभवम्’ के आठवें अध्याय में भगवान शिव और माता पार्वती के संयोग का बड़ा ही स्थूल और घोर शृंगारिक वर्णन किया जिससे माता नाराज हो गयीं और उन्होंने कालिदास को शाप दिया I इस शाप के कारण एक ओर कालिदास कुष्ठ रोगी हो गए और दूसरी ओर इसके आगे फिर वह काव्य रचना नहीं कर सके I

 हिंदी के आदिकाल में सिद्ध, नाथ और जैन संप्रदाय के ग्रंथ शृंगार से दूर ही रहे i बाद में चारण कवियों ने अपने आश्रयदाताओं का आलंबन लेकर शृंगार को काव्यों में स्थान दिया I इस काल में रासो काव्य की एक बड़ी समृद्ध परम्परा रही है I ‘खुमानरासो’, ‘बीसलदेवरासो’ और ‘पृथ्वीराजरासो’ इस परम्परा के मुख्य काव्य हैं i इनमें संयोग शृंगार का मादक वर्णन हुआ है, पर वह अश्लील नहीं है I ‘पृथ्वीराजरासो’ इस परपरा का गौरव-ग्रंथ है I इसमें राजा पद्मसेन की पुत्री पद्मावती की वय:संधि अवस्था का वर्णन इस प्रकार हुआ है -

मनहुँ कला ससभान कला सोलह सो बन्निय। 
बाल वैस, ससि ता समीप अम्रित रस पिन्निय॥ 
बिगसि कमल-स्रिग, भ्रमर, बेनु, खंजन, म्रिग लुट्टिय। 
हीर, कीर, अरु बिंब मोति, नष सिष अहिघुट्टिय॥ 

[पद्मावती मानो चंद्रमा की कला के समान है और चूंकि उसकी आयु सोलह वर्ष की है अर्थात वय:संधि की अवस्था है I अतः चन्दमा की सोलहों कलायें उसमे प्रस्फुटित हैं I विशेष बात यह है कि स्वयं चंद्रमा पद्मावती के रूप-रस से अमृत-पान कर रहा है I  नायिका ने अपने सौन्दर्य से कमल-माल, भ्रमर, वंशी, खंजन पक्षी और हिरन को लूट लिया है I उसके नख-शिख सौन्दर्य ने  हीरक, तोता, बिम्ब फल, मोती और सर्प को मन ही मन घुटने हेतु बाध्य कर दिया है I ]

एक अन्य वर्णन इस प्रकार है –

कुट्टिल केस सुदेस पोहप रचयित पिक्क सद। 
कमल-गंध, वय-संध, हंसगति चलत मंद मंद॥ 
सेत वस्त्र सोहे सरीर, नष स्वाति बूँद जस। 
भमर-भमहिं भुल्लहिं सुभाव मकरंद वास रस॥ 

[पद्मावती के केश सुन्दर और कुंचित हैं, उनमें फूल रचे हैं I वह पिकबयनी है I उसके शरीर से कमल की वास आती है I वयःसंधि की अवस्था है I वह हंस की भाँति मंद-मंद गति से चलती है I शरीर पर श्वेत वस्त्र शोभित हैं I उसके नाखून स्वाति बूंद से उत्पन्न मोती के समान हैं I मकरंद सरीखा वास और रस होने के कारण भ्रमर अपना स्वभाव भूल उसे ही पुष्प समझ कर उसके मुख-मंडल के चारों ओर मंडराया करते हैं I ]

 उक्त वर्णन से स्पष्ट है कि चारण कवियों में शृंगार का स्वरुप सामान्यतः शिष्ट रहा है I किंतु  इसी काल में मैथिल-कोकिल विद्यापति ने संस्कृत कवि जयदेव के ‘गीत गोविन्द‘ का आलंबन लेकर राधा-कृष्ण के शृंगार को अपना विषय बनाया और उनकी केलि के बहाने कविता में घोर शृंगार की सृष्टि की I यद्यपि कुछ लोगों ने इस शृंगार को देवार्पित मानकर उसे आध्यात्मिक रूप देने की चेष्टा की है  कितु आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ऐसे लोगों को आड़े हाथों लेते हुए अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में लिखा है - 

आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं I उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने ‘गीत गोविन्द’ के पदों को आधात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी I‘

 

          जाहिर है कि राधा-कृष्ण का आलंबन लेने पर भी आचार्य शुक्ल शृंगार के अमर्यादित वर्णन को लेकर न तो जयदेव को बख्श्ते है और न विद्यापति को I सच भी है शृंगार की नग्नता को देवी देवताओं का आलंबन लेकर स्वीकार्य नहीं बनाया जा सकता I शायद इसीलिये  माता पार्वती ने कालिदास को नहीं बख्शा I विद्यापति के उन्मुक्त शृंगार-वर्णन के कुछ निदर्शन इस प्रकार है –

[1] हिल बदरि कुच पुन नवरंग। दिन-दिन बाढ़ए पिड़ए अनंग।
   से पुन भए गेल बीजकपोर। अब कुच बाढ़ल सिरिफल जोर।
   माधव पेखल रमनि संधान। घाटहि भेटलि करइत असनान।
   तनसुक सुबसन हिरदय लाग। जे पए देखब तिन्‍हकर भाग।
   उर हिल्‍लोलित चांचर केस। चामर झांपल कनक महेस।

[नायिका के कुच पहले बेर बराबर हुए, फिर नारंगी जैसे । वे दिन-दिन बढ़ने लगे । कामदेव अंग- अंग को पीड़ा पहुँचाने लगा। स्‍तन बढ़ते-बढ़ते अमरूद जैसे दिखने लगे । यौवन और ज़ोर मारा तो बेल जैसे लगने लगे । कृष्ण अवसर की टोह में थे । उन्होंने सुन्दरी को ढूँढ़ निकाला । वह घाट पर नहा रही थी । भीगा हुआ महीन वस्‍त्र वक्ष से चिपका हुआ था । ऐसी भूमिका में जो भी इस तरुणी को देखता, उसके भाग्‍य जग जाते । लम्बे, गीले, काले बाल इधर-उधर छाती के इर्द-गिर्द लहरा रहे थे। सोने के दोनों शिवलिंगों (स्‍तनों) को चँवर ने ढँक लिया था।

 

[2 ]जखन लेल हरि कंचुअ अचोडि
   कत परि जुगुति कयलि अंग मोहि।।
   तखनुक कहिनी कहल न जाय।
   लाजे सुमुखि धनि रसलि लजाय।।
   कर न मिझाय दूर दीप।
   लाजे न मरय नारि कठजीव।।

   अंकम कठिन सहय के पार।
   कोमल हृदय उखडि गेल हार।।

[भगवान कृष्ण ने कंचुकी निकाल कर बाहर कर दी, तब मैंने अपने शरीर की लाज बचाने के लिए क्या-क्या यत्न नहीं किये । उस समय की बात का क्या जिक्र करूं, मैं तो लाज से सिकुड़ गई अर्थात् लाज से लकड़ी के समान कठोर हो गई । जलता दीपक कुछ दूरी पर था,  जिसे मैं हाथ से बुझा नहीं सकी । नारी लकड़ी के समान होती है, वह लाज से कदापि मर नहीं    सकती । कठोर आलिंगन को कौन बर्दाश्त करे, इसलिए कोमल हृदय पर हार का दाग पड़ गया।]

 [3] रति-सुबिसारद तुहु राख मान। बाढ़लें जौबन तोहि देब-दान ।
आबे से अलप रस न पुरब आस। थोर सलिल तुअ न जाब पियास ।
अलप अलप रति एह चाह नीति। प्रतिपद चांद-कला सम रीति ।
थोर पयोधर न पुरब पानि। नहि देह नख-रेख रस जानि ।

[हे श्याम, तुम कामकेलि-विशारद हो । मेरा मान रख लो। जवानी जब पूरे निखार पर आएगी तो उसे मैं अपने आप तुम पर निछावर करूँगी । अभी तो इस कच्‍ची तरुणाई से तुम्‍हारी आस पूरी नहीं होगी । थोड़े जल से प्‍यास भला किस तरह बुझेगी ? चन्द्रकला थोड़ा-थोड़ा करके बढ़ती है, काम-कला भी उसी प्रकार थोड़ा-थोड़ा करके पूर्णता प्राप्‍त करती है। अभी तो मेरे कुच भी छोटे हैं, तुम्‍हारे हाथों में भरपूर नहीं आएँगे । देखना कहीं,  रस के धोखे में इन पर अपने नाखून न जमा देना ।]

 भक्तिकाल के कवियों में में सूर, जायसी और रसखान और मीरा के काव्य में भी अधिक तो नहीं पर संयोग शृंगार के एकाधिक वर्णन मिलते हैं., जिन पर भक्ति भावना का आवरण भी है I  इस काल का संयोग शृंगार अपवाद छोड़कर प्रायश: मर्यादित ही रहा है I हिंदी काव्य में मादकता या मांसलता का प्रवेश सही मायने में रीतिकाल में हुआ I इस युग के अधिकांश कवि राजाश्रयी थे और उन्होंने अपने आश्रयदाताओं की विलासिता में चटक रंग भरने अथवा उनकी काम-भावना को तृप्त करने के लिए संयोग शृंगार को अपना अस्त्र बनाया I विद्यापति के काव्य इन कवियों के मार्गदर्शक ग्रंथ बन गये और उन्हीं की तर्ज पर रीतिकालीन कवियों ने शृंगारिक काव्य रचना हेतु राधा-कृष्ण को आलंबन बनाया I नायिका के नख-शिख वर्णन की सीमा इस काल में रही अवश्य पर वह उद्दीपक काम-वर्णनों की बाढ़ में पीछे छूट गयी और काव्य में केलि-क्रीडा तथा रतिक संदर्भों का प्राचुर्य हो गया I उदाहरण स्वरुप कवि पद्माकर कृत घनाक्षरी यहाँ प्रस्तुत है –

अँचल के ऎँचे चल करती दॄगँचल को ,
चंचला ते चँचल चलै न भजि द्वारे को ।
कहै पदमाकर परै सी चौँक चुम्बन मे,
छलनि छपावै कुच कुभँनि किनारे को ।
छाती के छुवै पै परै राती सी रिसाय ,
गलबाहीँ किये करै नाहीँ नाहीँ पै उचारे को ।
ही करति सीतल तमासे तुंग ती करति ,

सी करति रति मे बसी करति प्यारे को ।

 

कवि देव की नायिका के यौवन  का रंग इस प्रकार है –

जोबन के रँग भरी ईँगुर से अँगनि पै ,
ऎँड़िन लौँ आँगी छाजै छबिन की भीर की ।
उचके उचौ हैँ कुच झपे झलकत झीनी ,
झिलमिल ओढ़नी किनारीदार चीर की 

 नायिका के शरीरांगो के उद्दीपक वर्णन तो फिर गनीमत है, इस काल के कवियों ने

‘रति’, सुरति यहाँ तक कि ’विपरीत रति’ पर कलम चलाने से बाज नहीं आये I कवि बिहारी का निम्नांकित दोहा इस सत्य का प्रमाण है –

पर्‌यौ जोरु बिपरीत-रति रुपी सुरति रनधीर।
करत कुलाहलु किंकिनी गह्यौ मौनु मंजीर॥

[विपरीत रति पूरे वेग से जारी है । धीरा नायिका समागम-युद्ध में डटी है। अत: कमर की किंकिणी तो बज रही है, पर पाँवों के नूपुर मौन हैं अर्थात विपरीत-रति में नायिका की कटि  क्रियाशील है और पैर स्थिर हैं ।]

 हिदी साहित्य के पूर्व आधुनिक काल में भारतेंदू युग तक रीतिकाल का थोड़ा बहुत प्रभाव रहा I  किंतु इसके बाद आचार्य द्विवेदी युग से छायावाद तक शृंगार का स्वरुप साहित्य में बहुत सुष्ठु रहा है I अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध , मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रानंदन पंत       , जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा आदि ने शृंगार को सर्वथा नये आयाम दिए i उर्मिला का विरह, महादेवी की पीड़ा और प्रसाद के ’आंसू‘ को कौन भूल सकता है I प्रसाद संयोग का वर्णन करते भी है तो कितने अलंकारिक तरीके से-

परिरम्भ कुंभ की मदिरा , निश्वास मलय के झोंके I

मुख चंद्र चांदनी जल से मैं उठता था मुंह धोके II

 रामधारी सिह ‘दिनकर’ की ‘उर्वशी’ तो पूर्ण रूप से शृंगारिक काव्य ही है I काव्य का विषय कुछ ऐसा था कि वीर रस के यशस्वी कवि को शृंगार पर कलम चलानी पड़ी I इस काव्य में संयोग के अनेक विमुग्धकारी चित्र हैं I किंतु ‘दिनकर’ के शृंगार में उत्तेजना नहीं एक अनोखा मार्दव और मादकता है i एक चित्र देखिये –

तू मनुज नहीं, देवता, कांति से मुझे मंत्र-मोहित कर ले,
फिर मनुज-रूप धर उठा गाढ अपने आलिंगन में भर ले.
मैं दो विटपों के बीच मग्न नन्हीं लतिका-सी सो जाऊँ,
छोटी तरंग-सी टूट उरस्थल के महीध्र पर खो जाऊँ.
आ मेरे प्यारे तृषित! श्रांत ! अंत:सर में मज्जित करके,
हर लूंगी मन की तपन चान्दनी, फूलों से सज्जित करके.
रसमयी मेघमाला बनकर मैं तुझे घेर छा जाऊँगी,
फूलों की छन्ह-तले अपने अधरों की सुधा पिलाऊँगी

[उर्वशी पुरुरुवा से कहती है कि तू मेरे लिए मनुष्य नहीं देवता है I तू अपनी आभा से मुझे मंत्र-  मुग्ध कर ले I फिर तू मनुष्य के अपने वास्तविक स्वरूप में आकर मुझे उठा ले और अपने प्रगाढ़ आलिंगन में भर ले I मैं तुम्हारी भुजाओं रूपी डॉ विशालकाय वृक्षों के बीच नन्ही लतिका की तरह सो जाऊं I यही नहीं मैं तुन्हारे वक्षस्थल रूपी पर्वत पर उन्माद की छोटी तरंग की भाँति टूटकर बिखर जाऊं i ऐ मेरे प्यासे और थके प्रिय, मैं तुझे अपने हृदय-सरोवर में नहलाकर  तुम्हारे मन की ज्वाला को चांदनी और फूलों से सजाकर, स्वयं रस की मेघमाला बनकर तुम्हे चारों ओर से घेर लूंगी और तुम पर छा जाऊंगी i इसके बाद फूलों की छाया के नीचे मैं तुम्हे अपना अधरामृत पिलाऊंगी I’  

        

         आधुनिक काल में जब हीरानंद सच्चिदानन्द ‘अज्ञेय’ ने प्रयोगवाद का झंडा बुलंद किया तब हिंदी कविता में काफी बदलाव आया I नग्न यथार्थ और यौन कुंठा के नाम पर  कविता में फिर से शृंगार की रंगीनियाँ उभर कर सामने आने लगीं और यह कहा जाने लगा कि गन्दगी उपादान में नहीं देखने वालों की नजर में है I डॉ. शशि शर्मा अपनी पुस्तक समकालीन हिंदी कविता (अज्ञेय और मुक्तिबोध के सदर्भ में) के पृष्ठ 63 में कहते है -

‘अज्ञेय के अनुसार – ‘अधूरा देखना ही अनैतिकता है I अश्लीलता तथा अनैतिकता दृष्टि में होती है I शर्म भी आँखों में होती है और उधड़ापन भी वहीं होता है I’ यह पाठक के स्तर पर निर्भर करता है I अपरिपक्व मस्तिष्क के लिए नैतिकता भी अनैतिकता हो सकती है ‘  

 अज्ञेय की एक कविता है –

कोषवत सिमटी रहे यह चाहती नारी  I

खोलने का लूटने का पुरुष अधिकारी II

 अज्ञेय के समय में ही अकविता, नयी कविता और नकेनवाद आया I इसी समय फ़्रांस के एक कला-आन्दोलन से, जो स्वतंत्रता और प्रेम पर बल देता थ तथा व्यक्तित्व के अंतर्विरोधों के चित्रण को महत्वपूर्ण मानता था, उससे हिंदी कवियों में यह नयी सोच विकसित हई कि सभ्यता, संस्कृति, धर्म, न्याय, नैतिकता ये सब व्यक्ति के वास्तविक स्वरुप पर पर्दा डालते हैं  I ये सभी सामाजिकता और नैतिकता की दुहाई देकर व्यक्ति की चिंतन गति को अपनी ओर मोड़ लेते हैं I इस सोच के फलस्वरूप कविता में अतियथार्थवाद (Surrealism) आया I यहीं  से कविता में यौन संबंधों को नग्न रूप में दिखाने की पहल हुयी और शृंगार में रूमानियत का दौर खत्म हो गया I अब उसका स्थान कामुकता (Erotica) ने ले लिया I शृंगारिक कविता ह्रदय का मंथन करने वाली न होकर काम-भावना को अधिकाधिक उद्दीप्त करने वाली (Sensuous) हो गयी I डॉ. राम छबीला त्रिपाठी कृत ‘हिंदी  और भारतीय भाषा का तुलनात्मक अध्ययन’ के पृष्ठ 242 -243  के अनुसार -

‘आज के युग में सेक्स के मानदंड बड़े तेजी से बदल रहे हैं , कामुकता अपने नग्न रूप में आ रही है ----यही स्थिति अकविता की है जहाँ मांस का दरिया बहता है और उघरी जांघे और मटकते कूल्हे हैं i इस कविता में अब तक के मूल्य मर्यादा की अस्वीकृति है ---वास्तव में हिंदी  की अकविता ---ने जोर देकर स्थापित किया है कि यौन भावना के प्रति पवित्रता का दृष्टिकोण न होकर भोगने जीने का होना चाहिए I’

 इस लिहाज से कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं- 

 [1]  कितने बौने हैं वे सब
    मेरे माँस में कुछ इंच धँस कर
    उनका सब कुछ पिघल जाता है
    मोम की तरह तब न होते हैं वे  - केशव  (-kavitakosh.org/kk_/_केशव)

[2] होटो मे प्यास, आँखों मे इजाजत है

   जिव्हा मे मदिरा, तन मे हरारत है

   बदन मे तनाव, यौवन मे कसावट है

   उरोजो मे उठान, योनि मे तरावट है

                -kvitaye.blogspot.com/2009/08/blog-post_1157.html

[3] यह मेरे जीवन की
   सबसे अश्लील और अंतिम कविता है
   जब मैं अपने स्थूल भगोष्ठों पर
   तुम्हारी चेतना के सूक्ष्म स्पर्श को
   अनुभव करते हुए
   ब्रह्माण्डीय प्रेम के
   चरम बिन्दु को छू रही हूँ    ---शेफाली नायक

                  - https://groundreportindia.org › Home › आपके आलेख

 साहित्य में शृंगार केवल स्त्री और पुरुष का संयोग या वियोग का उन्मुक्त चित्र मात्र नहीं है I शृंगार साहित्य में एक रस होता है और रस वह नहीं होता जो मनुष्य में काम की भावना को जागृत करे I काव्य-शास्त्र में "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" कहा गया है और रस का शाब्दिक अर्थ होता है – आनन्द । काव्य को पढ़ते या सुनते समय जो आनन्द मिलता है उसे रस कहते हैं। रस को काव्य की आत्मा माना जाता है । पहले भी कवियों ने शृंगार के मादक और उद्दीपक वर्णन किये है I कितु वे वर्णन ह्रदय को मथते और गुदगुदाते है I  वर्तमान हिंदी कविता में आधुनिकता और अतियथार्थवादी अभी नग्नता की किस सीमा तक जायेगी, यह तो आने वाला समय ही तय करेगा I मगर साहित्य को सत्य, भिव और सुन्दर होना चाहिए, यह आज भी अधिकांश लोग मानते हैं I  

 

 (मौलिक/अप्रकाशित )

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 



 

 

Views: 1034

Reply to This

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .

दोहा पंचक  . . . .( अपवाद के चलते उर्दू शब्दों में नुक्ते नहीं लगाये गये  )टूटे प्यालों में नहीं,…See More
22 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर updated their profile
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभा जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार.. बहुत बहुत धन्यवाद.. सादर "
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय। "
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आपका हार्दिक आभार, आदरणीय"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ पांडेय सर, बहुत दिनों बाद छंद का प्रयास किया है। आपको यह प्रयास पसंद आया, जानकर खुशी…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय आदरणीय चेतन प्रकाशजी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, प्रदत्त चित्र पर बढ़िया प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करते बहुत बढ़िया छंद हुए हैं। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम मथानी जी छंदों पर उपस्तिथि और सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार "
Sunday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service