बहर.
2122-2122-2122-212
एक दिन उसने मेरी खामोशियों को रख दिया ।।
मेरे पेश-ए-आईने मे'री' हिचकियों को रख दिया ।।
तोड़ बंदिश हिज्र -ए-दिल ख़ुल कर युँ रोया इक दफा।
उसने दिल के सामने जब चिट्ठियों को रख दिया ।।
खन्न की आवाज ले सिक्का छुआ कांसे को जब।
भूख ने नजरें उठाई सिसकियों को रख दिया ।।
जब कभी मेरा वजू अन्धा हुआ इस भीड़ में ।
माँ ने अपनी आस के रौशन दियों को रख दिया ।।
गर कभी मायूस हो मन देख कर छत घास की।
छत में लाकर के पिता ने तितलियों को रख दिया ।।
रूठ कर नींदों ने मुझको गर डराया है कभी।
माँ ने सिरहाने में ला कर लोरियों को रख दिया ।।
बाद तेरे छल के टूटी जिस्त का यह हौसला।
हाँ अकेला ही चला बैशाखियों को रख दिया।।
जब कदम बे-हिस हुये जीस्त की इस जंग में।
उसने संजीदा किया तालीमियों को रख दिया।।
एक दिन मिटना सभी को दूर रख तब तक इन्हें।
उसने इतना कह मुझे मे'री' गल्तियों को रख दिया ।।
आमोद बिन्दौरी / मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय समर दादा जी प्रणाम , मार्गदर्शन के लिए हृदय से आभार
जनाब आमोद बिंदौरी जी आदाब,ग़ज़ल अभी समय चाहती है,शिल्प,व्याकरण,और शब्दों को बरतना अभी आपको सीखना है,बहरहाल बधाई स्वीकार ।
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