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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक २७ मे शामिल सभी गज़लें चिन्हित मिसरों के साथ एक जगह

योगराज प्रभाकर 

उड़ने का वो जुनून गया वो हुनर गया
ये झूठ है कि वक़्त मेरे पर क़तर गया

इक दम से ही मीज़ान का चेहरा उतर गया 
शायद मेरे हिसाब से कोई सिफर गया

कुछ दीन बस्तियों में उजाला बिखर गया 
ये दोष हुक्मरान को जम कर अखर गया


ये दौर है अजीब यहाँ सर उठा रहे 
इक बार सर झुका तो समझ लो कि सर गया

शैतान के निजाम का जादू चला जहाँ 
जो था खुदा शनास खुदा से मुकर गया


किसके लिए सलीब ये बिकने को आ रहे 
ईसा गए तो एक ज़माना गुज़र गया

ग़ुरबत की तेज़ आग से कुंदन बना हूँ मैं 
तपकर दुखों की आँच में कुछ तो निखर गया

*  मीज़ान = जोड़/टोटल 

 

Tilak Raj Kapoor .

(1)

देकर दुआ फ़कीर न जाने किधर गया 
उजड़ा हुआ था गॉंव, मुकद्दर सँवर गया।

सय्याद उड़ सका न मुकाबिल मेरे मगर
मुझको दिखा के ख्‍़वाब मेरे पर कतर गया।

तकदीर मुट्ठियों में भरे आए हैं सभी 
खाली हथेलियों को लिये हर बशर गया।

उसकी वफ़ा अना की हदों पर ठहर गयी
मेरी वफ़ा रुकी न कभी, मैं बिखर गया

उसकी कशिश, तिलिस्‍म कहूँ, और क्‍या कहूँ 
लौटा है जि़स्‍म दर से मगर दिल ठहर गया।

मुझको पता नहीं कि बुझा किसलिये मगर
बुझता हुआ चिराग़ मेरी ऑंख भर गया।

तूने मुझे दिये या मुझे खुद ही मिल गये 
“तपकर दुखों की आँच में कुछ तो निखर गया”। 

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(2)

झोंका हवा का ज़ुल्‍फ़ कभी छेड़कर गया
मौसम कभी उदास हवाओं से भर गया

 

बुझता हुआ चिराग़, चलो कुछ तो कर गया
लड़ने का इक ज़ुनून चराग़ों में भर गया।

सिज़दे में सर झुका के पड़ा था मैं बेखबर  
हैरत तुझे है वार हरिक बेअसर गया।

जो कुछ नहीं है उसकी बहुत चाह थी उसे
पिय से मिली ये रूह, अनासिर ठहर गया।

माहौल खुशगवार नहीं क्‍यूँ बचा कहो 
ज़ज्‍़ब: मुहब्‍बतों का बताओ किधर गया।

ऐसा अदाशनास कहॉं पाओगे कहो 
मालिक दिखा उदास, उदासी से भर गया।

अंदर तलक पहुँच के तुझे आ गयी समझ
छाया हुआ ज़ुनून चलो खुद उतर गया।

ऑंखों में ऑंसुओं के समन्‍दर मिले मुझे
मैं जब सुकूँ तलाशने को दर-ब-दर गया

दुश्‍वारियों का शुक्र मेरे साथ वो चलीं
“तपकर दुखों की आँच में कुछ तो निखर गया”।

 

 dheerendra singh bhadauriya 

जिंदगी से परेशान होकर मै तो सिहर गया 
तपकर दुखों की आँच में कुछ तो निखर गया,

चाहा था मैंने जिंदगी में पाना बहुत कुछ 
मिलने से पहले ही मेरा सपना बिखर गया,

गुजर रहा हूँ आज उस बदहाली के दौर में
गया, आरजू पूरी न हो सकी बस पाना अखर

बेबसी का आलम में देखता उस वक्त को 
खडा हूँ उस दौर में जहाँ समय ही ठहर गया,

बस वक्त के सितम का मै अहसान ही कहूँ
पा न सका भले कुछ पर जीवन संवर गया,

 

AVINASH S BAGDE (1)

देखा जो उसके बाप को तो फिर से डर गया,
पतझर की डाल जैसे पल में ही झर गया.

पी नाम से थी उनके सरे - शाम आज भी,
पोलिस के पड़े हाथ तो नशा उतर गया!!!

मुझको सुखों की चाह ने इतना सुखा दिया,
तपकर दुखों की आंच में कुछ तो निखर गया.

कितने दिनों से मैंने किराया नहीं दिया!!!
मालिक-मकान आया तो भेजा ही चर गया....

मुस्कान ये मनमोहिनी महँगी लगे मुझे!!
हंसने लगा १०-जनपथ , भारत सिहर गया

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(2)

देखो तो उसकी मां का चेहरा उतर गया.
पकड़ा गया था झूठ ,बकरा किधर गया???

मदहोश हो शराबी कितना भी बारहा,
चाहे किसी भी हाल वो अपने ही घर गया.

खोद रहा है जड़ें  अपने ही गाँव की,
बचवा पड़ोस का वो जबसे शहर गया!!.


राजा था,बगीचे की खाता है अब हवा!!
वक़्त की रफ़्तार में सर से चंवर गया.

आसमां सुबह का हासिल न कर सके,
पंख कोई रात में उसके क़तर गया.

हताहतों का आंकड़ा छूने लगा पहाड़,
समय क़े साथ बाढ़ का पानी उतर गया!!!

सच बात तो यही है अविनाश भी कहे,
तपकर दुखों की आंच में कुछ तो निखर गया.

 

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  Arvind Chaudhari 

वो आबदार नज़र से दिल में उतर गया
मेरी किताब का हर पन्ना उभर गया

उनका हुआ है दिल पे  असर क्या, न पूछिए
वो शख्स इत्र बन के नफ़स में बिखर गया

मैं शाद था कि,रंग चढ़ेगा ज़ीस्त पर
पर कारवाँ गुबार उड़ाकर गुजर गया

वो रात-दिन नहीं कि मुलाक़ात भी नहीं
वे क्या गए कि आज ज़माना ठहर गया


आई शबे-विसाल दिनों बाद ज़ीस्त में
पर ये सवाल है कि,सितमगर किधर गया !

खुश हूँ,ख़ुशीकी गोद में सोया नहीं कभी
तपकर दुखों की आंच में कुछ तो निखर गया

SHARIF AHMED QADRI "HASRAT" 

ग़म की भवर से मेरा सफीना उभर गया
उनसे मिली नज़र तो मुक़द्दर संवर गया


तेरी ही आरज़ू में ये गुजरी हे ज़िन्दगी
तेरी ही जुस्तजू में ये सारा सफ़र गया 


दोलत गयी न साथ न रिश्ता गया कोई 
सब कुछ यहीं पे छोड़ के हर इक बशर गया 


माना के मुझको जीस्त में ग़म ही मिले मगर 
तपकर दुखों की आंच में कुछ तो निखर गया 


मेरे वतन को सोने की चिड़िया कहा गया 
हसरत वो मेरे मुल्क का रुतबा किधर गया

 arun kumar nigam 


दो रोज शाख पे खिला ,खिल कर बिखर गया
आई  बहार , गुलिस्तां  फिर   से सँवर  गया |


कुछ  खार  हँस  रहे  थे , जवानी को देख कर
कुछ पूछते थे   आपका , बचपन किधर गया |


शाखें  कटीं  दरख्त  की , सहमा - सा है खड़ा
जैसे   परिंदे के  कोई  ,  पर  ही  कतर  गया |


भँवरे  भटक रहे थे , मचलती थी  तितलियाँ
बस  देखते  ही  देखते , मौसम  गुजर  गया |


कुछ   फूल मुस्कुराते , किताबों  में  रह  गये 
तपकर दुखों की आँच में कुछ तो निखर गया |

 rajesh kumari 

शब्दों के तीर छोड़ वो जैसे उधर गया 

  आँखों में गर्म खून का लावा उतर गया 

 

कुर्सी के ख़्वाब हर इक  की आँख में मिले   

  जैसे किसी जुनून का साया पसर गया 

 

उसको ख़ुशी की छाँव में धोखे मिले फ़कत

  तपकर दुखो की आंच में कुछ तो निखर गया

 

आकाश  ख्वाहिशों का तभी छूने थी चली 

   सैंयाद कैंचियों से सभी पर कतर गया 

 

खुशियाँ दरों पे आकर ऐसे सिमट गई    

  हाथों से ज्यूँ शराब का प्याला बिखर गया 

 

फ़ज्लो करम की सख्त  फ़जीहत तो देखिये 

  उसके फ़लक से धूप का टुकड़ा गुजर गया 

 

इंसान जिंदगी भर समझा न जानता 

  आया था किस दिशा से न जाने किधर गया 

Abdul Latif Khan 


जो देश हित में तन मन बलिदान कर गया,
बनकर सुमन सुगंध वो जग में बिखर गया.

अपने  विदीर्ण वस्त्र  मैं लेकर  जिधर गया,
इक व्यंग भाव मुख पर सभी के उभर गया.

धूमिल जो  हो  गया  था  सुखों  के  हुजूम  में,
तप कर दुखों कि आंच में कुछ तो निखर गया.

आया था सुख मेरे घर पाहुन समान ही,
दुख मित्रवत सदा के लिए ही ठहर गया.

आबाद हो सका न वो जाकर शहर में भी,
जो अपने हसते गाँव को वीरान कर गया.

निष्तब्ध ये धरा है तो अम्बर भी मौन है,
अपने दुखों का बोझ लिए मैं जिधर गया.

वादे  सहस्त्र   करके   गया   था   चुनाव   में,
सत्ता का सुख मिला तो वचन से मुकर गया.

अपनी कला पे गर्व जिसे था बहुत ‘लतीफ़’,
अभिमान छू गया  तो  नज़र से उतर गया.

गंतव्य उसको प्राप्त न होगा कभी ‘लतीफ़’,
कठिनाइयों के भय से जो पथ में ठहर गया.

 

 Raz Nawadwi 

जल जलके नारेहिज्रमें दिल ऐसे निखर गया

सोने का जो मुलम्मा चढ़ा था वो उतर गया

 

सपना ही नींद है तो मैं सोया हूँ सारी उम्र

तेरे ही सपने देखता मैं जहाँ से गुज़र गया

 

जिस दर्द-ए-शबे हिज्र को खुद से भी छुपाया

वो बिस्तर की सलवटों में सरापा उभर गया

 

कोई तेगे शुआ बनकर इक निगाह आ चुभी

कंचों की मिस्ल कल्ब का शीशा बिखर गया

 

वो साअतेवस्लेलम्हाए- यक का गुमान क्या

गर्दिशमें था जो खल्क, दफअतन ठहर गया

 

आती हैं किस को मर्ज़ेमुहब्बत की हिकमतें 

जितना हुआ मुदावा अंदर उतना ज़हर गया  

 

होता गया बुलंद   मैं  मिस्लेदूदेचिरागेइश्क

उसको नशा भी क्या कहें वो जो उतर गया

 

कहताथा इश्क कामहै जिसको न कोई काम

उसको जोहुई लगावटें तो कहके मुकर गया

 

मैं खुश था कि दो रोटिओंको पैसे हैं जेब में

देखे दो नंगे बच्चे तो मेरा चेहरा उतर गया   

 

अबभी वहीं पड़ीहैं वो बल्लीमारानकी गालियाँ

पे ‘राज़’! वो ग़ालिब का तमाशा किधर गया

 

नारेहिज्रमें- विराहाग्नि की लपटें; तेगेशुआ- किरण रूपी तलवार; कल्ब- हृदय; अंतर्मन; साअतेवस्लेलम्हाए- यक-  इक क्षण के मिलन की घड़ी; गर्दिशमें- घूर्णन में; खल्क- संसार; दफअतन- अचानाक; मर्ज़ेमुहब्बत की हिकमतें- प्रेम रूपी व्याधि का इलाज़; मुदावा- उपचार; मिस्लेदूदेचिरागेइश्क- प्रेम रूपी दिए के धुंए की तरह; 

 

 

 Raz Nawadwi 

 

उपरोक्त गज़ल सुधार के बाद

जलकर अजाबेहिज्रमें दिल यूँ निखर गया

सोने का मुलम्मा चढ़ा था वो उतर गया

 

सोया हूँ सारी उम्र गर सपना ही नींद है

तेरे ही ख्वाब देख जहाँ से गुज़र गया

 

जिस दर्देशबेहिज्र को खुदसे भी छुपाया

बिस्तर की सलवटों में सरापा उभर गया

 

नज्रेहया इक तेगेशुआ बनके आ चुभी

कंचोंकी मिस्ल कल्बका शीशा बिखर गया

 

लम्हाएवस्लेयार के परतौ का ज़िक्र क्या

मिस्लेसुकूत दौराँएगर्दिश ठहर गया

 

आती हैं किसको हिकमतें मर्ज़ेहयात की

होने के तनासुब में ही अंदर ज़हर गया 

 

दूदेचिरागेइश्क सा होता गया बुलंद    

कैफेवफ़ा भी क्या कहें जोकि उतर गया

 

कहताथा इश्क कामहै जिसको न कोई काम

दामेवफ़ा की चोट में इससे मुकर गया

 

मैं खुश था कुछ मआश और पैसे हैं जेब में

बच्चे दो नंगे देखकर चेह्रा उतर गया  

 

दिल्ली पुरानी आज भी रहती है कूचों में

ग़ालिब का मगर राज़ ज़माना किधर गया

 

अजाबेहिज्रमें – विरह के दुःख में; दर्देशबेहिज्र- विरह की रात की पीड़ा; नज्रेहया- लज्जा से भरी दृष्टि; तेगेशुआ- किरण रूपी तलवार; कल्ब- हृदय; अंतर्मन; लम्हाएवस्लेयार-  प्रियतम से मिलन की घड़ी; परतौ- चमक, तेज; मिस्लेसुकूत- स्तब्धता की भांति; दौराँएगर्दिश – घूर्णनशील विश्व; मर्ज़ेहयात- जीवन रूपी व्याधि; हिकमतें- इलाज़; तनासुब- अनुपात; दूदेचिरागेइश्क सा- प्रेम रूपी दिए के धुंए की तरह; कैफेवफ़ा- प्रेम का नशा; दामेवफ़ा- प्रेम का जाल; मआश- अर्थ और साधन;

 

 Raz Nawadwi 

 

मुर्गे सा दीखता मगर हुलिया सुधर गया

चूहा हमारे शेर की कलगी कुतर गया

 

मुद्दत के बाद कूचे में बरपा हुआ जो जश्न

भालू की नाच देखकर बन्दर भी तर गया

 

बेखुद तुम्हारे इश्क में था इस कदर रकीब

मुझसे ही मेरे मर्ग की लेकर खबर गया

 

पूछे जो बस्तियां तो समझ आए उनकी बात

सहरा क्यूँ पूछने लगा मजनूं किधर गया

 

कारेवफ़ा का तर्ज़ भी समझेंगे बावफ़ा

फ़ित्ना है इश्क इसलिए ज़ेरोज़बर गया

 

दुनिया कोई नुमाइश थी जो ख़त्म हो गई  

आँखों के सामने से ज़माना गुज़र गया

 

तुम भी बदलते दौर में मुझसे बदल गए

उल्फत का भूत मेरे भी सर से उतर गया

 

बैठा था तेरे वास्ते रस्ते पे शाम तक

आया न लबेबाम तू तो मैं भी घर गया

 

मुद्दत के बाद यार को पाया जो मुक़ाबिल

माज़ी कोई जखीरा था जो बस बिखर गया

 

शेरोसुखन की बात थी तू था ख्याल में

तेरे बगैर सोचने का भी हुनर गया

 

ज़ेरेविसालेयार मैं दुहरा हुआ जो राज़

साया भी मुझको देखकर इकबार डर गया

 

मर्ग– मौत; फ़ित्ना– उपद्रव; ज़ेरोज़बर- ऊपर-नीचे; लबेबाम- छज्जा; माज़ी- अतीत; मुक़ाबिल- सामने; ज़खीरा- मिली जुली चीज़ों की गठरी; ज़ेरेविसालेयार- प्रियतम से मिलन के समय.

Praveen Kumar Parv

टूटा यूँ इख्तियार कि सब कुछ ठहर गया,
इक तेरे बदल जाने से सब कुछ बिखर गया ll

 

दुश्वारियाँ से दिल को बचाया नहीं,चलो,
तप कर दुखों की आँच में कुछ तो निखर गया ll

 

वीरां दिल की दुनिया है कोई भी नहीं है,
ये इज़्तिराब[१] क्यूँ मेरे हर सू पसर गया ll

 

उफ़ गुनगुनाती शाम की उठती हुई पलकें,
दिल को बचाने का मेरे सारा हुनर गया ll

उल्फत को बंदगी की तरह हम निभा गए,
इल्जाम-ए-कुफ्र[२] देके वो वादा मुकर गया ll

 

लफ़्ज़ों को तराशा है 'पर्व' हमने इस तरह, 
जज्बाते लफ्ज़ हर मिरा उसके ही घर गया ll

[१] इज़्तिराब—बैचनी,व्याकुलता

[२] इल्जाम-ए-कुफ्र— धर्म विरोधी होने का इल्जाम

 UMASHANKER MISHRA 

आह भर ये जिंदगी समझो कुछ अखर गया

वाह कह के दाद से सब कुछ निखर गया

पाने की चाह सब को है पाता वही मगर

मेहनत को दिल में ठान जो भी है कर गया  

दरिया को अपने इल्म का मालूम है हुनर  

जिधर गयी बहती हुई उधर शहर गया

सदियाँ हुई बदनाम लम्हों की खता से

देखो इतिहास खोलकर तारीख भर गया

चक्की खुदा की पीसती धीरे से है मगर

नेकी की राह में चलो न कहना अखर गया  

मतलब नहीं है मौत का कि कैसे वो जिया

ज़िंदा दिली से जी के सबकी नजर गया

जीना है जिंदगी में तो सबके लिए जियो

वो जिंदगी ख़ाक है जो खुद पे है मर गया

जो गम की चिमनियों में जलकर के ज़र हुए

तपकर दुखों की आँच में कुछ तो निखर गया

ज़र=स्वर्ण, सोना 

 वीनस केसरी


मुझको किसी भी राह पे रोका अगर गया.
अब सोचता हूँ क्यों मैं बराबर उधर गया.

जिस पर किया भरोसा वही तोड़ कर गया,
आखों में बसते बसते ही सपना बिखर गया.

वो आँखें मुफलिसी में अना का शिकार थीं,
सच होते होते जिनका हर इक ख़्वाब मर गया.

कुछ दोस्तों ने मुझको धकेला मजाक में, 
कुछ मैं भी 'अक्लमंद' था हद से गुज़र गया. 

माना कि मेरे ख़्वाब जले, पर मेरा कलाम,
तप कर दुखों की आग में कुछ तो निखर गया.

Arun Kumar Pandey 'Abhinav' 

मज़हब की आड़ ले के वो हद से गुज़र गया | 
सौ आदमी के रात में जो सर क़तर गया | 

ऊपर चढो मगर ज़रा सुध उसकी भी तो लो, 
तुमको सँभालने में जो नीचे उतर गया | 

उँगली पकड़ के दोनों का, जो खेल में था मस्त, 
माँ बाप जब झगड पड़े बच्चा किधर गया | 

जो ज़ख्म आप दे रहे, शायर का शुक्रिया 
तपकर दुखों की आंच में कुछ तो निखर गया | 

मैं चूमता ही रह गया हूँ तेरे नक़्श-ए-पा, 
तूने तो अलविदा कहा, और अपने घर गया | 

बच्चों के घर में माँ के लिए कुछ जगह न थी, 
बापू जी के गुजरते ही कुनबा बिखर गया |

Laxman Prasad Ladiwala 

 

ग़ज़लों को सीखने के लिए इक डगर गया 
ये झूठ है कि वख्त मेरे पर क़तर गया (१) 

गुरुदेव ने कहा न सोच सब गुजर गया 
इस उम्र में तू और ही ज्यादा निखर गया (२) 

गज़लें पढ़ीं तो जोश चढ़ा लिख दूं एक गज़ल (३) 
मतला रदीफ काफिये में मैं बिखर गया 

सीखा जो कल था आज उसी पर चला हूँ मै 
आगे भी सीखने को मैं लंबे सफर गया (४) 

करना पड़ा है यार बहुत आज परिश्रम 
तप कर दुखों की आंच में कुछ तो संवर गया(५)

SANDEEP KUMAR PATEL 

(1)


जीने लगा फरेब यकीं का असर गया 
इंसानियत भुला कर इंसान मर गया

माना खुदा जिसे वो अहद भूल कर गया 
हैरान हूँ खुदा के खुदा ही मुकर गया

हंगाम में ग़मों के खड़ा हँस रहा हूँ मैं
आँखों के मोतियों को पिरोना बिसर गया  

आँखें झुका के शर्म से तुम लाल हो गयी 
बाकी बचा कमाल तेरा मौन कर गया 

माना खुदा जिसे वो अहद भूल कर गया 
हैरान हूँ खुदा के खुदा ही मुकर गया 

सपने लिए हसीन लगा हौसलों के पर   
भूला था राह जो कभी पंछी वो घर गया 

लिखने लगे सफाह पे हम शेर-ओ-शाइरी
तपकर दुखों की आँच में कुछ तो निखर गया 

हर वक़्त रक्खी उसने होंठों में तब्बसुम
जब "दीप" वो गया तो सबको अखर गया 

(2)
टूटा हुआ सा ख्वाब हमारा बिखर गया 
हँसते हुए वो जख्म प यूँ आह भर गया 

अहदो-बफा निभाना हमें तो अखर गया 
सीने में एक दर्द सा फिर से उभर गया 

यूँ टूट कर के इश्क की चोटों से बारहा 
संजीदगी मिली है "प" बचपन बिसर गया   

यादें हमारे इश्क की धुँधली न हो सकीं 
गहरा हिना का रंग ये जैसे उतर गया 

जीते जी मौत दे के वो जीना सिखा रहे
कहते हैं चोट खा के तो पत्थर सँवर गया  

टूटी नहीं झड़ी जो लगी आँख से मेरी 
सावन के जैसे इश्क का मौसम गुजर गया 

अब आदमी को "दीप" वो पहचानने लगे 
तप कर दुखों की आँच में कुछ तो निखर गया

Yogendra B. Singh Alok Sitapuri 

(1)

दुनिया के रास्ते से मुसाफिर गुज़र गया 
दुनिया समझ रही है कि इंसान मर गया 

ये कम नहीं कि दामन-ए-हस्ती संवर गया 
तप कर दुखों की आंच में कुछ तो निखर गया 

उस बेवफा की याद का आँसू है बावफा 
गिरकर जो आँख से मेरे दिल में उतर गया 

नागिन की तरह डस गयीं मजबूरियां मुझें 
जो हौसला था मुझमें न जाने किधर गया 

रहता है मेरे दिल में ये मुझको खबर न थी 
मैं जिसको ढूँढने के लिए दर बदर गया 

रूठे हुए सनम को मनाने के वास्ते 
जाना न चाहता था जिधर मैं उधर गया 

मुफलिस था बदनसीब था 'आलोक' हर तरह 
माँ की दुआ मिली तो मुकद्दर संवर गया

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(2)

लख्त-ए-जिगर गया मेरा नूर-ए-नज़र गया

रोजी तलाश करने वो जाने किधर गया

 

कोई पता बता न सका मेरे यार का

मैं जिसको ढूँढने के लिये हर नगर गया  

 

मैला किया ज़मीर सुखों की तलाश में

तपकर दुखों की आँच में कुछ तो निखर गया

 

मंजिल मिली मिली तो मुझे इस तरह मिली

बनकर ख़याल-ए-यार मेरा हमसफ़र गया

 

वादा किया वो आया मगर रात ख्वाब में

लगता है मेरा यार ज़माने से डर गया

 

बेहद मिला करार दिल-ए-बेकरार को

राही सफर से लौट के जब अपने घर गया

 

'आलोक' शेर कहना है तो कम से कम कहो

वरना ग़ज़ल कहेगी कि पैमाना भर गया 

rajesh kumari 

 सपना खुदा गरीब का टूटा बिखर गया    

ज़ालिम जो मुश्किलात में वापस मुकर गया 

 

तेरे मकाँ की छत में दरारें खुली हुई 

     बादल ये आज देकर ऐसी खबर गया 

 

लोगों की भीड़ में छुप कर भाग ना सका 

    पर्दा ज़रा हटा की तभी आ नज़र गया 

दौलत मिली अहम् वश बेनूर जो हुआ 

    तपकर दुखों की आंच में कुछ तो निखर गया 

 

अल्लाह की नज़र से छुपा क्या सका कभी  

     ठोकर लगी नापाक ज़खीरा बिखर गया 

 

सूखी जमीं में आज नवल फूल है खिला 

     तेरी दुआ का शायद  कुछ तो असर गया 

 

जिस का चिराग हो रहा  रोशन विदेश में 

     काली अमावसों में  बुढ़ापा गुजर गया 

 

 rajesh kumari 

 

संशोधित ग़ज़ल 

सपना गरीब का रब  टूटा बिखर गया 

   ज़ालिम जो मुश्किलात में वापस मुकर गया 

 

तेरे मकाँ की छत में दरारें खुली हुई 

     बादल ये आज देकर ऐसी खबर गया 

 

लोगों की भीड़ में उसे पहचान ना सकी 

    सोने का  हार छीन वो  जाने किधर गया 

 

दौलत मिली अहम् वश बेनूर जो हुआ 

    तपकर दुखों की आंच में कुछ तो निखर गया 

 

अल्लाह की नजर से न वो छुप सका कभी 

     ठोकर लगी नापाक ज़खीरा बिखर गया 

 

सूखी जमीं में आज नवल फूल है खिला 

     तेरी दुआ का उस तक कुछ तो असर गया 

 

जिस का चिराग हो रहा  रोशन विदेश में 

     काली अमावसों में वो बूढा गुजर गया 

 Saurabh Pandey 

ज़िद और मनबढ़ाव था दिल से उतर गया 
हर वक़्त था ग़ुमान में आखिर ठहर गया ||1||

जिसकी उछाह में रहे हरदम खिले-खिले 
वो सामने हुआ तो नशा ही उतर गया  ||2||

वो इसतरह से प्यार निभाते दिखे मुझे 
गोया बुखार का चढ़ा मौसम बिफर गया ||3||

मैं बज़्म हो कि मंच हो ग़ज़लें उछाल दूँ  
चर्चा छिड़ी जो बह्र की चेहरा उतर गया ॥4||

हर आम जन उदास है ’परिवार क्या चले’ 
’वो’ घोषणा सुधार की टीवी पे कर गया ||5||

वो दौर भी अज़ीब था लेकिन मैं अब कहूँ 
तप कर दुखों की आँच में कुछ तो निखर गया ||6||

विश्वास के ही नाम पे क़ुर्बानियाँ रहीं
चाहत वफ़ा लिहाज़.. मैं बेवक्त मर गया ||7||

 Ambarish Srivastava 

(1)


दोनों पसार हाथ सिकंदर पसर गया
पानी के बुलबुले की तरह हर बशर गया.

फलदार बन के छाँव दी पत्थर मिले मगर, 
लोहे को दे के बेंट ही कटता शज़र गया.

पाला गुरूर जो भी है हँस के मिटा तुरत,
तेरा गुरूर आज खुदा को अखर गया.

लोहा जला तो आग में सोना न बन सका
तपकर दुखों की आँच में कुछ तो निखर गया

तसवीह जिन्दगी की फिराते रहो मियां, 
मिट जायगा वजूद दिलों से अगर गया.

बेहतर रहें ख़याल तो छा जायेगी ग़ज़ल,
मिसरा लगा के देखा तो दिल में उतर गया.

'अम्बर' ने दिल की बात अभी बाअदब कही,
फरमाये कौन गौर, चला हमसफर गया.

(2)

पढ़ने जो दूर मुल्क में लख्त-ए-जिगर गया.

चेहरा खिला है बाप का दिल माँ का डर गया. 

 

बिल्डिंग बना दी रेत की आने को ज़लज़ला,

सुधरा न ठेकेदार का ईमान मर गया.

 

होता है साथ ठीक नहीं बेईमान का,                    

ईमान की डगर पे मुकद्दर संवर गया.

 

जिसकी तलाश में थे भटकते यहाँ वहाँ ,

अब जा के वो मिला है ज़माना गुज़र गया.

 

मझधार बीच मौज किया दिल की मान के ,

लहरों से खेल खेल किनारे उतर गया.

 

सिरहाने मौत आ के भी वापस पलट गयी,

करना पड़ा कयाम खयाल-ए-सफर गया.

'अम्बर' ने आंक तो लिया अपने वज़ूद को,

लम्हे में जाने क्या हो चला बेखबर गया.

 Arvind Kumar 

 

तूफाँ की साजिशों से मेरा घर सिहर गया,
हो जाने क्या, अगर जो ये टूटा, बिखर गया.

वादे पे शब-ए-वस्ल के हमको यकीन था,
उस शब के इंतज़ार में जाया सहर गया.

यूं आइनों ने आज भी टोका नहीं मुझे,
मैं फिर भी शर्मसार रहा, जब उधर गया.

आँखें थी सुर्ख, बावुज़ू आरिज़ मेरे हुए,
तपकर दुखों की आँच मे कुछ तो निखर गया.

मानिंद बुत के था कभी, ठोकर में राह की,
उसकी परस्तिशों से, लो मैं भी संवर गया.

एक दिन बचाया हमने गमे-रोजगार से,
वो खो गया न जाने कहाँ, किस नज़र गया.

काशिद है लौटा लेके, ये गम से भरा जवाब,
'जो रब्त दरमयान था, कब का गुज़र गया.

dilbag virk 

दिल में उठा, दिमाग तलक फिर असर गया 

तूफ़ान था बड़े जोर का पर गुजर गया |

 

कुछ तो असर किया बेवफा के कमाल ने 

इस इश्क का खुमार जरा-सा उतर गया |

 

माना बहुत बुरा लगा दुख झेलकर मगर

तपकर दुखों की आंच में कुछ तो निखर गया |

 

कहना हमारा है नहीं परवाह , झूठ था 

जब सामने हुआ, आँख में अश्क भर गया |

 

मुश्किल बहुत सफर, बड़ा कमजोर आदमी

गुम हो गया कहीं राह में, कौन घर गया ?

 

हम चल पड़े तमाम रंजो-फ़िक्र छोडकर 

जब विर्क उम्मीदों का शीराजा बिखर गया |

 

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वाह वाह श्री राणा जी , क्या कहने इस संयोजन आपने जिस तात्कालिकता और प्रमाणिकता से सभी ग़ज़लों को संगृहित किया हार्दिक बधाई आपको | तरही मुझ जैसे नौसीखियों के लिए कार्यशाला की तरह है आप सबका आभारी हूँ जो यह मंच और ऐसा सौभाग्य मुझे मिला जहां परम आदरणीय श्री योगराज जी , श्री बागी जी , श्री सौरभ जी जैसी विभूतियों का मार्गदर्शन प्राप्त हो रहा है  !!

क्या कमाल के मुशायरे हुए है

कहाँ चले गए इतने सारे  शायर 

बाकी के अंक कल .......

जो सीख गये वे ’आगे’ निकल गये.. जो अबतक सीख रहे हैं वे मम्च पर बने हुए हैं.

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