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आग पानी से जलाकर देख लेते ( गज़ल ) - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

2122    2122    2122

आँख में  उनकी  छिपा डर  देख लेते
जल गये  जो आप  वो घर  देख लेते


कर दिया अंधा सियासत ने सहज ही
आप वरना  खूँ  के  मंजर  देख  लेते


क्यों किसी  के  आसरे पर  आप बैठे
कुछ नया खुद आजमाकर देख लेते


बात करते हो बहुत तुम न्याय की जब
हाकिमों नित  क्यों कटे  सर देख लेते


खूब   सुनते   है  तेरी  जादूगरी   की
आग  पानी  से  जलाकर  देख  लेते


सोच लेता मैं  कि  जन्नत पा गया हूँ
कमसिनों  आगोश  में भर  देख लेते


आशिकी होती न तो हम आँख रखते
तब समय  के  हाथ  पत्थर  देख लेते


गर ‘मुसाफिर’ मुफलिसी में यार होता
आप  भी  तो  आजमाकर  देख  लेते

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 23, 2014 at 9:06pm

आदरणीय सौरभ भाई जी , बेहतरीन सलाह और के लिए कोटि कोटि आभार ,

आप वो की जगह आशियाँ करना वास्तव में बहुत अच्छा है और इससे भवार्थ और अधिक स्पष्ट हो रहा है इस मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद . छठे शे'र में कमसिनो को सम्बोधन कि तरह ही प्रयोग किया गया है . वैसे उसे कमसिनी भी किया जा सकता है पर थोडा सा भाव बदल जायेगा .इसलिए यहाँ पर ऐसा करना उचित नहीं लग रहा और ओ कि मात्रा में अनुस्वार निश्चित तौर पर नहीं होना चाहिए ,इस भूल कि ओर ध्यान दिलाने के लिए भी आभार .एक कमजोर शेर कि ओर आपने इसारा किया है इस पर फिर से अवश्य मेहनत करूंगा .बड़े भाई के नाते इसी तरह मार्गदर्शन करते रहेंगे यही आकांक्षा है .


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 4, 2014 at 2:37pm

भाई लक्ष्मण मुसाफ़िरजी, आपकी ग़ज़ल के लिए हार्दिक धन्यवाद. मन खुश कर दिया अपने. ऐसी ग़ज़लें आयें औरहम पाठक प्रसन्न होते रहें.
वैसे कुछ अपनी बातें अवश्य करना चाहूँगा. उचित लगे तो अनुमोदन कर स्वीकार कीजियेगा. अन्यथा
कोई बात नहीं.

आँख में  उनकी  छिपा डर  देख लेते
जल गये  जो आप  वो घर  देख लेते
सानी में ’आप’ शब्द ऐसी जगह पर आया है, जिसके कारण वाक्य में अर्थ दोष बन रहा है. आप वो को आशियां कर दिया जाय तो ’आशियां-घर’ का समास बनेगा जो आपके कहे को और वज़्न देगा.

कर दिया अंधा सियासत ने सहज ही
आप वरना  खूँ  के  मंजर  देख  लेते
वाह वाह वाह !

क्यों किसी  के  आसरे पर  आप बैठे
कुछ नया खुद आजमाकर देख लेते
तकाबुले रदीफ़ का दोष बन जा रहा है. वैसे कहन का अच्छा निर्वहन हुआ है.

बात करते हो बहुत तुम न्याय की जब
हाकिमों नित  क्यों कटे  सर देख लेते
यह शेर हर लिहाज़ से और समय मांगता लगा. इसे कृपया और समय दीजिये.

खूब   सुनते   है  तेरी  जादूगरी   की
आग  पानी  से  जलाकर  देख  लेते
वाऽऽह..  दिल से दाद लीजिये, भाई.

सोच लेता मैं  कि  जन्नत पा गया हूँ
कमसिनों  आगोश  में भर  देख लेते
क्या रुमानी खयाल है ! सुभान अल्लाह.
मग़र एक बात .. कमसिनों को सम्बोधन की तरह लिया है तो ओ की मात्रा के साथ अनुस्वार नहीं आयेगा. वैसे कमसिनों को कमसिनी किया जा सकता है क्या.. अर्थ को ध्यान में रख कर बोलियेगा. .. :-)))

आशिकी होती न तो हम आँख रखते
तब समय  के  हाथ  पत्थर  देख लेते
यहाँ भी तकाबुल रदीफ़ैन का दोष दिख रहा है. लेकिन शेर का खयाल सुभान अल्लाह. वैसे कहन को तनिक और खोलना अच्छा होगा.

गर ‘मुसाफिर’ मुफलिसी में यार होता
आप  भी  तो  आजमाकर  देख  लेते
मक्ता के लिए बधाई.

शुभेच्छाएँ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 18, 2014 at 1:29pm

क्यों किसी  के  आसरे पर  आप बैठे
कुछ नया खुद आजमाकर देख लेते..............बहुत सुन्दर 

सुन्दर ग़ज़ल हुई है , ये शेर ख़ास पसंद आया 

हार्दिक बधाई आ० लक्ष्मण धामी जी 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 14, 2014 at 7:34am

आदरणीय अनुपमा जी प्रशंसा के लिए आभार

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 14, 2014 at 7:33am

भाई अनिल जी , उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 14, 2014 at 7:32am

आदरणीय भाई गिरिराज जी ग़ज़ल अच्छी लगी इस बात से प्रशन्नता हुई .शिज्जू भाई और आपकी राय वाजिब है .अमल करूँगा हार्दिक धन्यवाद .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 14, 2014 at 7:30am

आदरणीय शशि जी प्रशंसा व सलाह के लिए धन्यवाद .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 14, 2014 at 7:28am

आदरणीय भाई शिज्जू भाई प्रशंसा व सलाह के लिए आभार . सलाह सर आँखों पर . हार्दिक धन्यवाद

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 14, 2014 at 7:25am

आदरणीय भाई श्याम नारायण जी एवं भाई त्रिपाठी जी ,ग़ज़ल कि प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .

Comment by annapurna bajpai on February 13, 2014 at 7:59pm

 उम्दा गजल कही , बहुत बधाई आपको । 

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