For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ६३-६६ (तरुणावस्था-१० से १३)

(आज से करीब ३१ साल पहले)

 

शनिवार, २७/०३/१९८२, नवादा, बिहार: एक मोड़

--------------------------------------------------------

आज हम सभी साथियों की खुशी किसी सीमा में बांधे नहीं बाँध रही है. आज हम सभी सुबह से ही उस घड़ी की प्रतीक्षा में हैं जब हम मैट्रिक की संस्कृत के द्वीतीय पत्र की परीक्षा दे परीक्षा-भवन से आख़िरी बार निकालेंगे.

 

हमारे मैट्रिक इम्तेहान का सेंटर नवादा मुख्यालय से २९ किमी दूर रजौली कसबे के एक सरकारी स्कूल में रखा गया था. मैं और मुझसे ठीक बड़े भैया पिछले १५ दिनों से रजौली में किराए के एक मकान में रह रहे थे. हमें ५० रूपये के किराए पे मुसलिम मोहल्ले में एक कमरा रहने को मिला था. कुछ वृद्ध से दीख रहे मकान मालिक के चेहरे पे उगी उनकी सुफेद खूबसूरत दाढ़ी और उनकी निष्कपट मुस्कान हम कभी भुला नहीं पाएंगे. शुरू में हमें एक मुसलमान मोहल्ले और खासकर एक मुसलमान परिवार के घर रुकने में डर सा लग रहा था, मगर दो-एक रोज़ में ही घरवालों की मुहब्बत और उनके द्वारा हमारा ख्याल रखने के तौर तरीकों ने हमें गलत साबित कर दिया. यह गाँव का ईंट, मिट्टी, और खपड़े से बना एक आम झोपड़ी जैसा मकान था जहां पत्थर के कोयले और मिट्टी के चूल्हे पे खाना बनाया जाता था. हर सुबह और शाम कुछ देर के लिए पूरा का पूरा गांव ही जैसे धुंए के रेलों में खो सा जाता था.

 

मैं रोज़ सुबह करीब चार से पाँच बजे के बीच पढ़ने उठ जाया करता था और सुबह सुबह हमें चाय हाज़िर कर दी जाती थी. चाय और नाश्ते का कोई शुल्क या शर्त हमारे मौखिक किराए के अनुबंध में शामिल नहीं थी. न ही प्रतिदिन रात के खाना खाने का निवेदन. 

 

परीक्षा के बाद हम सभी साथियों ने नवादा-रजौली बायपास के एक ढाबे में साथ-साथ दिन के खाने का आनंद लिया. उसके बाद हम ग्यारह साथियों ने मिलकर रजौली से नवादा जाने के लिए एक जीप किराए पे ली. चालीस रूपये के किराए पे जीपवाला चलने को तैयार हो गया. शाम के पौने छह बजे हमने रजौली छोड़ दी. जीप काली नागिन सी सड़क पे सरपट भागी जा रही थी. हरे खेत, शस्य-श्यामला धरती, पारसनाथ की पहाड़ियों के नीचे बसा रजौली का गाँव, घर, दालान, बाज़ार- सभी एक एक कर पीछे छूटते गए और संध्या सात बजे के करीब मैं पंद्रह दिनों के बाद घर पहुंचा.

 

आज की रात सभी साथियों के साथ मित्र अशोक के घर बीती. कुछ लड़के फिल्म देखने चले गए और कुछ अशोक के घर ही रुक गए जिनमें मैं भी एक था. आज रात मैंने कविता पाठ किया.

 

शनिवार, २९/०३/१९८२, नवादा, बिहार: एक गाँव का सफ़र

-----------------------------------------------------------------------

आज सोमवार है और तड़के भोर ही मैं दीप भैया के साथ बाबूजी की पुरानी बीएसए मोटरसाइकिल पे बैठ रोह गाँव के लिए उड़ा जा रहा हूँ. रोह नवादा से १४ किमी दूर एक छोटा सा गाँव है जहां भैया स्थानीय चिकित्सक का काम करते हैं. यद्यपि कि वो एमबीएसएस नहीं हैं, कोई अन्य डिग्री है उनके पास, मगर उनका चिकत्सीय ज्ञान सर्वमान्य है और गाँव के लोगों की उनमें अपार श्रद्धा है. भैया में एक चीज़ जो मैंने स्वयं देखी है वो ये है कि वे बहुत ही विश्वास के साथ किसी मर्ज़ का इलाज करते हैं और मैंने पीड़ा से कराहते और भय से त्रस्त लोगों को ठीक होते भी देखा है.

 

नवादा और रोह के बीच कादिरगंज एक छोटा सा कस्बा है जो रेशम के वस्त्रों की बुनकरी के काम के लिए भी जाना जाता है. कादिरगंज से ठीक बाहर आते ‘संकरी’ नाम की एक नदी मिलती है जिसपे एक अति प्राचीन और कमज़ोर सा पुल बना है. पुल जैसे ही ख़त्म होता है, सड़क करीब ११० डिग्री के कोण पे बाईं और घूम जाती है. यह सड़क जमुई, मुंगेर, देवघर, भागलपुर, इत्यादि शहरों की ओर जाती है. पर हमें इधर नहीं जाना है. पुल के आगे सड़क जहां से बाईं ओर घूमती है, उसी के आस-पास से एक अन्य सड़क फूटती है जो करीब ३०-३२ किमी लम्बी है. यह सड़क कौआकोल तक जाती है.  कौआकोल  वही जगह है जहाँ के सेखोदेओरा गाँव में श्री जयप्रकाश नारायण ने सर्वोदय आश्रम की स्थापना की थी जिसका उदघाटन भारत के प्रथम राष्ट्रपति श्री राजेंद्र प्रसाद ने किया था. इसी सड़क पे, जहां से यह फूटती है, वहाँ से करीब सात किमी आगे रोह नामक छोटा सा एक गाँव है जहां हमें जाना है.

 

हमें रोह पहुँचने के लिए अभी ५-६ किमी की यात्रा और तय करनी थी कि गाड़ी का पेट्रोल लगभग ख़त्म होने को आया और भैया ने किसी गाँव जैसी जगह पे गाड़ी रोक दी. किसी तरह से आधे लीटर किरोसिन तेल का इंतज़ाम किया और गाड़ी की टंकी में डाल दिया. तेल बेचने वाले ने डेढ़ रूपये की मांग की जिसपे भैया ने कहा कि यह तय दाम से बहुत ज़्यादा है. तेल बेचने वाला मानने को तैयार न था. लिहाज़ा भैया ने उससे उसके रिक्शे का नम्बर पूछा (गाँव में उस वक़्त लोग रिक्शे पे तेल बेचा करते थे). तेल बेचनेवाला डर गया और उसने चुपके से और बगैर किसी हील हुज्जत के पंचानवे पैसे काट लिए जो उसका उचित मूल्य था.

 

हम रोह पहुँच गए. मुझे नवादा तुरंत वापिस होना था और वो भी साइकिल से जो पंक्चर पडी थी. पंक्चर बनवाकर सुबह आठ बजकर पैतीस मिनट पर मैंने वापसी के लिए प्रस्थान किया. सुबह से कुछ खाया न था. गर्मी के दिन होने की वजह से धूप भी कड़ी होती जा रही थी और अभी मुझे साइकिल से १४ किमी की लम्बी यात्रा तय करनी थी. खैर, मैं किसी तरह नौ बजकर पचपन मिनट पर नवादा वापिस घर पहुँच गया.

 

यह थकावट का प्रभाव था अथवा कुछ और, घर आते ही पीठ में दुस्सह्य पीड़ा का प्रादुर्भाव हो गया.

 

सोमवार, ०५/०४/१९८२, टाटानगर (जमशेदपुर), बिहार: जमशेदपुर का सफ़र

-----------------------------------------------------------------------------------------

परीक्षा शेष होने के बाद के चंद महीने जैसे जीने की पूरी आज़ादी ले के आए. मैंने तय किया कि मैं कुछ दिनों के लिए जमशेदपुर जाउंगा, वो शहर जहां हमने सन ७० से ७३ के बीच बचपन के कुछ साल बिताए थे और जहां के बिष्टुपुर स्थित माधोसिंह मेमोरियल स्कूल से हमारी विद्यालयीय यात्रा शुरू हुई थी.

 

हमारे तीसरे भैया जमशेदपुर के एमजीएम् मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहे हैं और मुझसे ठीक बड़े भैया एक अन्य कॉलेज से स्नातक की. दोनों ने अपने दोस्तों के साथ मिलकर साक्ची में एक घर किराए पे ले रखा है.

 

आज सुबह दस बजे २५ रूपये और अस्सी पैसे की टिकट कटा कर मैं बीएसआरटीसी की लाल बस में बैठ गया. सुबह दस बजे से रात के आठ बजे तक के करीब ३४० किमी के लम्बे सफ़र में बस में बैठा-बैठा मैं काफी थक गया था. कल रात एक बजे तक जगना और सुबह छह बजे उठ जाना भी सफ़र के लिए अनुपयुक्त साबित हुआ.

 

बेचारा संजय! मेरा पड़ोसी और मेरे छोटे भाई जैसा, मुझसे उम्र में दो-एक साल छोटा. आठ भाई बहनों के घर में चूँकि मैं सबसे छोटा हूँ, मैंने संजय को ही अपने छोटे भाई और दोस्त के रूप में मान रखा है. कल रात उसने भी मेरे साथ जगकर मेरे सामान की पैकिंग की और आज सुबह बस स्टैंड भी मुझे छोड़ने आया. उसके पिताजी और अन्य दो चाचाओं की नवादा बाज़ार में बीजों और कीटनाशकों की दुकान है. मुझे संजय से सिर्फ एक ही परेशानी है- वो जब भी अपनी दुकान से मेरे पास आता है, मुझे ऐसा लगता है कि मैं गमैक्सिन अथवा अन्य कीटनाशकों के गोदाम में पहुँच गया हूँ, वो ज्यादातर वक़्त कीटनाशकों की तरह महकता है.  

 

मैंने देखा वो अधीर मन से अपने भारी कदमों को उठाता घर की ओर चल पड़ा था. वह कह भी रहा था कि मेरे बिना उसका मन नहीं लगेगा.

 

रास्ते में यदा कदा हम सभी यात्रिगण स्थानीय कालेज के छात्रों द्वारा जगह-जगह बस रुकवाने के कारण परेशान होते रहे. छात्र अपनी छात्रता का गर्व से प्रदर्शन करते हुए, और ज़रूरत पड़ने पे कंडक्टर एवं ड्राईवर को घुडकियां देते हुए, अपने घर के दरवाज़े पे ही बस रुकवाने की जिद पूरी करते रहे. मुझमें इसके प्रतिरोध की तीव्र इच्छा हुई, मगर मैं शीघ्र ही ये समझ गया कि यह मेरे अकेले के बस की बात नहीं.

 

टाटानगर के साक्ची बस-स्टैंड पर घर तक के लिए रिक्शा ढूँढना भी कुछ कम दुष्कर न रहा. एक बच्चे जैसे दीखने वाले मुझ तरुण युवा को सामान के साथ अकेला देख कर कोई भी रिक्शावाला तिगुने से कम किराए की मांग नहीं कर रहा था. रात हो चुकी थी और वहाँ इक्के-दुक्के रिक्शेवाले नज़र आ रहे थे. सभी दोगुना-तिगुना भाड़ा बताकर आगे निकल जाते और यह कहते हुए पास में ही आपस में गप्पे लड़ाने लगते कि ‘यदि ज़रूरत हो तो बुला लेना’. उन्हें उम्मीद ही नहीं पक्का विश्वास था कि मैं उनके लिए एक आसान शिकार हूँ.

 

मैं कुछ देर यूँ ही किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रहा. पर तभी कोई अन्य रिक्शावाला कहीं और से मेरे पास आया, उचित किराया तय हुआ और मैं दूसरे रिक्शेवालों के सामने से गर्व से मुस्कुराता हुआ अपने डेरे की और निकल गया.

 

मंगलवार, ०६/०४/१९८२, टाटानगर (जमशेदपुर), बिहार: जमशेदपुर में

----------------------------------------------------------------------------

कल रात जल्दी ही नींद आ गई. आज सुबह उठा तो मैं कुछ ख़ास खुश नहीं महसूस कर रहा था. मेरे दोनों भाइयों और उनके कुछ दोस्तों को मिलाकर दो कमरों में आठ-दस लोगों के बीच अपने आप को पाना- एक भीड़, एक कोलाहल जैसा अनुभव था. मुझे नवादा में अपने कमरे की निस्संगता और अकेलेपन की सुरक्षा याद आ रही थी और मुझे लग रहा था मेरी हालत ताड़ से गिरकर खजूर पे अटकने वालों सी हो गई है. लोग बातें कर रहे थे, तर्क- वितर्क हो रहा था, और हर कोई अपनी बात सिद्ध करने की कोशिश में था.

 

मैं सोचने लगा व्यक्तित्व के पूर्ण प्रस्फुटन के लिए निस्संगता कितनी आवश्यक है. मैं यदि इस भीड़ में भी विचारों से शून्य हो जाऊं तो यहाँ भी निस्संगमय स्थिति दुर्लभ नहीं. मगर यह उस साधक के लिए एक दुस्तर संघर्ष है जो अभी इस क्षेत्र में नया-नया है. मन ने यह भी तर्क दिया कि निर्विचारणा की स्थिति तक पहुँचने के लिए जो निश्रणि है उसका पहला पायदान बाह्य जगत की शांतिमय अवस्थिति है. भीतर से विचार-शून्यता तो बहुत बाद की बात है.

 

मेरी वैचारिक तंद्रा तब टूटी जब भैया ने कहा, ‘आओ, नाश्ता करते हैं’.

 

© राज़ नवादवी

‘मेरी मौलिक व अप्रकाशित रचना’

Views: 746

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by राज़ नवादवी on September 3, 2013 at 10:06pm

आदरणीय केवल प्रसाद जी. आपका ह्रदय से आभार. आपकी सराहना से इस अकिंचन को हार्दिक प्रसन्नता हुई. 

Comment by राज़ नवादवी on September 3, 2013 at 10:02pm

आदरणीय भटनागर जी, आपकी समीक्षा एवं सुझावों का स्वागत है और तदनरूप परिश्रम का प्रयास करूंगा. मेरी डायरी के ये पन्ने (तरुणावस्था के) जब लिखे गए थे मैं १६ वर्ष का भी नहीं हुआ था.  मैंने कभी यह भी नहीं सोचा था कि एक दिन इन्हें लोगों के सम्मुख रखूँगा. अतएव, शिल्प अथवा विन्यास की किसी भी इंगित कमी को मैं अपनी अभिज्ञता समझ स्वीकार करता हूँ. सादर!

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on September 3, 2013 at 10:02pm

आ0 राज नवादवी  जी,  सादर प्रणाम!   वाह!...  बहुत ही भावपूर्ण यादगार पल...एक  सुन्दर प्रस्तुति।   हार्दिक बधाई स्वीकारें।  सादर,

Comment by राज़ नवादवी on September 3, 2013 at 9:54pm

आदरणीया अन्नपूर्णा जी, आपका हार्दिक आभार!

Comment by annapurna bajpai on September 3, 2013 at 4:50pm

आदरणीय राज जी काफी अच्छे शब्दों  मे पिरोया आपने अपने ही जीवन के खंडो को , आपको हार्दिक शुभकामनायें । 

Comment by ARVIND BHATNAGAR on September 3, 2013 at 8:48am

आदरणीय राज जी ,
मै आदरणीय श्याम जुनेजा जी की बात से सहमत हूँ कि भाषा की प्रवाहमयता है आपके पास । साथ ही यह भी कहना चाहता हूँ कि डायरी , लिखने वाले के नज़रिए से उस काल खंड की एक सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक तस्वीर भी प्रस्तुत करती है जिससे वो उस काल खंड को समझने का एक इमानदार और महत्वपूर्ण दस्तावेज बन जाती है , अन्यथा वो एक रोज नामचा बन के रह जाती है । डायरी पढना मेरा शौक है और मै आपकी डायरी को बहुत ध्यान से पढता हूँ । आशा है आप मेरे सुझाव पर ध्यान देंगे । शुभ कामनाओं सहित 'शेखर '

Comment by राज़ नवादवी on September 2, 2013 at 10:21pm

आदरणीय जुनेजा जी, एक बार फिर से आपका ह्रदय से आभार ! आपने सही कहा, पढने को ज़्यादा ही परोस देता हूँ. ध्यान रक्खूंगा! सादर 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
5 minutes ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
7 minutes ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .मजदूर
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
35 minutes ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to योगराज प्रभाकर's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-110 (विषयमुक्त)
"आदाब।‌ हार्दिक धन्यवाद आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' साहिब। आपकी उपस्थिति और…"
2 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . .
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर छंद हुए हैं , हार्दिक बधाई।"
3 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post कुंडलिया छंद
"आ. भाई सुरेश जी, अभिवादन। प्रेरणादायी छंद हुआ है। हार्दिक बधाई।"
3 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। अच्छी रचना हुई है। हार्दिक बधाई।"
4 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to योगराज प्रभाकर's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-110 (विषयमुक्त)
"आ. भाई शेख सहजाद जी, सादर अभिवादन।सुंदर और प्रेरणादायक कथा हुई है। हार्दिक बधाई।"
4 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to योगराज प्रभाकर's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-110 (विषयमुक्त)
"अहसास (लघुकथा): कन्नू अपनी छोटी बहन कनिका के साथ बालकनी में रखे एक गमले में चल रही गतिविधियों को…"
22 hours ago
pratibha pande replied to मिथिलेश वामनकर's discussion ओबीओ मासिक साहित्यिक संगोष्ठी सम्पन्न: 25 मई-2024
"सफल आयोजन की हार्दिक बधाई ओबीओ भोपाल की टीम को। "
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: उम्र भर हम सीखते चौकोर करना
"आदरणीय श्याम जी, हार्दिक धन्यवाद आपका। सादर।"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: उम्र भर हम सीखते चौकोर करना
"आदरणीय सुशील सरना जी, हार्दिक आभार आपका। सादर"
yesterday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service