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चमत्कार बेच के...

राह में खड़े हो यूँ घर-बार बेच के,

अपना बसा-बसाया ये संसार बेच के.
किसने तुम्हे सताया के करते हो ख़ुदकुशी,
लड़  रहे हो म्यान से,  तलवार बेच के!
बख्शेंगी तुम्हे क्यों ये समंदर की मछलियाँ!
खे   रहे  हो   नाव  यूँ  पतवार   बेच   के.
कैसी रवायतें   हैं ये  कैसा   समाज है?
दुल्हन खड़ी है हाट  में सिंगार बेच के!!
आवाज़ तेरी गूँज के रह जाएगी यहाँ,
तू फिरेगा यूँ तेरे अधिकार बेच के.
दरबारियों ने उसको इस कदर  डुबो  दिया,
कर्जे चूका रहा है वो दरबार बेच के.!!
मतलब समाज-सेवा के बदलें है इस तरह,
पाते हैं   मानदेय वो   प्रतिकार बेच के .
कैसे करेंगे पूरा वो  सपना सुराज का!
बातें अमन की करते है हथियार बेच के.
हमने हवाले कर दिया वतन को जिनके हाथ,
खा गए वो   देश   को   गद्दार बेच के.
फैली है कैसी भुखमरी शायर के गाँव में!
भर रहा है  पेट वो    अशआर    बेच के. 
चलन ये ज़माने का है 'अविनाश' क्या करे?
बन जाओ कोई स्वामी चमत्कार बेच के...
 
अविनाश बागडे.

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Comment

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Comment by Arun Sri on March 1, 2012 at 10:27am

वाह वाह !

क्या बात है !

सभी शे'र एक से बढ़कर एक !

Comment by AVINASH S BAGDE on March 1, 2012 at 10:00am

राकेश  भाई,

हार्दिक स्वागत
इस ओ.बी.ओ. परिवार में.
शुक्रिया मेरी ग़ज़ल पर अपने पसंदगी की मुहर लगाने के लिये.
Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 1, 2012 at 9:39am
आदरणीय अविनाश जी सादर, बहुत सुन्दर पंक्तियाँ. 
किसने तुम्हे सताया के करते हो ख़ुदकुशी,
लड़  रहे हो म्यान से,  तलवार बेच के!
हार्दिक बधाई. 
Comment by Pradeep Bahuguna Darpan on February 15, 2012 at 12:02pm
Bahut hi sundar aur prabhavi rachna .......

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