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किसी और की अब जरूरत नहीं है
मगर तुम न कहना मुहब्बत नहीं है

हुई जब से शादी तो फुर्सत नहीं है
रहूंँ मायके में इज़ाज़त नहीं है

मैं मदहोश उनकी ही यादों में रहता
मुझे भूलने की तो आदत नहीं है

सरे आम होते यहां ज़ुर्म रहते
उसे रोकने की भी हिम्मत नहीं है

तुम्हें गर न देखें थमी सांस रहती
अगर मर गया भी तो हैरत नहीं है

फ़कत इश्क़ में अब दिखावा ही दिखता
नये शोहदों में इबादत नहीं है

नगर गाँव में देखा इतना ही अंतर
है कमसिन कली पर नज़ाकत नहीं है

मेरी माँ के खाने में जो स्वाद पाया
किसी और में वो ही लिज्ज़त नहीं है

गईं आसमां पर कई बेटियां ये
किसी की भी बेटी मुसीबत नहीं है

जला "दीप" दर पर तेरे मैं खड़ी हूँ
ख़ुदा मुझपे क्यूँ तेरी रहमत नहीं है

स्वरचित एवं अप्रकाशित

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 23, 2021 at 1:30pm

आ. दीपांजलि जी, अभिवादन। गजल का अच्छा प्रयास हुआ है। हार्दिक बधाई। गुणीजनो के सुझाव का संज्ञान लेने से यह और निखर सकती है.

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on November 6, 2021 at 1:10pm

मुहतरमा दीपांजलि दुबे जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है, बधाई स्वीकार करें।

समर कबीर साहिब की इस्लाह पर ग़ौर कीजियेगा। सादर।

Comment by Samar kabeer on November 4, 2021 at 6:46pm

मुहतरमा दीपांजली दुबे जी आदाब ,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है लेकिन ग़ज़ल अभी समय चाहती हे ,बहरहाल इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें I 

'किसी और की अब जरूरत नहीं है
मगर तुम न कहना मुहब्बत नहीं है'---मतले के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है विचार करें I 

'मैं मदहोश उनकी ही यादों में रहता
मुझे भूलने की तो आदत नहीं है'---इस  शे`र का शिल्प मिहनत चाहता है I

'सरे आम होते यहां ज़ुर्म रहते
उसे रोकने की भी हिम्मत नहीं है '---इस शे`र के दोनों मिसरों में रब्त नहीं 'शिल्प भी कमज़ोर है I 

इसी तरह बाक़ी अशआर भी मिहनत चाहते हैं I 

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