“.....चलो....... चलो हर हाल में चलो ”
पाँव फिसले जमीं पर तो घबराना क्या....
आसमां से कदम तुम मिलाते चलो ...
लाख तोड़े समंदर घरोंदे तो क्या ...
रेत के फिर भी घर तुम बनाते चलो ....
दूर हो जाएँ अपने-पराए तो क्या ....
तोहमतों को गले तुम लगते चलो ...
मिल ना पाये अगर फूल गुलशन में तो........
हसरतों ही से माला बनाते चलो
पड़ के हैरत में तुमको लगे देखने .....
ऐसा मंज़र जहाँ को दिखाते चलो
कारवाँ छूट जाये जो रहो में तो .....
हमसफर खुद का “खुद” को बनाते चलो
पत्ता पत्ता अगर झड़ भी जाए तो क्या ........
टहनियों से गुलिस्ताँ सजाते चलो .....
मन तो मचलेगा आखिर है ये “मनचला”
मनचलों की ही दुनिया बसाते चलो ....
“प्रदीप मनचला”
Comment
भाई प्रदीप जी, संतोषम परम सुखम को प्रेरित करती यह रचना कथ्य के हिसाब से बहुत अच्छी है | बधाई स्वीकारें |
चल चल पुरतो निधेहि चरणम्
सदैव पुरतो निधेहि चरणम्...
आपकी इस रचना के लिये हार्दिक शुभकामनाएँ..
किसी रचना के लिये उसकी संप्रेषणीयता के साथ-साथ उसका प्रस्तुतिकरण भी बहुत महत्त्व का होता है. शिल्प, शैली, कथ्य, भाव सभी इसके बाद आते हैं. अच्छी रचना के लिये धन्यवाद.
bahut sundar rachna. har mushkil me chalne ki himmat de rahi hai.
congrats for nice one.
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