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गृहस्थ

छंद-आल्हा/वीर, बृज मिश्रित
-------------------------
जय जय जय भगवती भवानी
कृपा कलम पर रखियो मात
आज पुनः लिख्यौ है आल्हा
जामै चाहूँ तेरौ साथ
महावीर बजरंगी बाला
इष्टदेव मन ध्यान लगाय
निज विचार गृहस्थ पर मेरे
आल्हा में भर रह्यो सुनाय
नर नारी दोनों ही साधक
सर्जन पालन जिनकौ काम
एकम एक बनौ मिल गृहस्थ
कठिन साधना बारौ नाम
बात कहूँ गृहस्थ की पहली
रखो बंधुवर जाकौ ध्यान
नहीं बुराई करौ नारि की
जातै जुडौ आपकौ मान
एक अकेले में चल जावै
भरी भीर में दीजौ ध्यान
नारि सोचती है कछु ज्यादा
करियौ वही करे गुणगान
बात दूसरी मर्यादा की
भूले ते मत हाथ उठाय
नैनन कौ डर नैनन में हो
नैनन ते दीजौं समझाय
हँसी मजाक घड़ी भर करियों
ज्यादा करी करै नुक़सान
नारि बदै अरु नैक सुनें ना
बाद लगें संकट में प्रान
तीजी बात सोच आधारित
करो बात पे जरा विचार
बिना कलह लगता है सुंदर
कच्चे, पक्के घर कौ द्वार
माँग नारि की बिन सोचे ही
पूर्ण करो मत बिल्कुल मीत
जुड़ा हुआ है कल इससे ही
और छिपी इसमें ही जीत
तीन माँग हों यदि नारी की
सोच समझ कर पहली मान
दूजी टाल आजकल करके
तीजी कर न, भले धनवान
चौथी बात कमाई वाली
कितनी होती मासिक आय
भूले ते मत भेद बताओ
लेना मित्रो आय छुपाय
खर्चा पानी घर कौ सबरौ
करनौ कितनौ पति कौ काम
भेद खुलत पानी ज्यौ जावै
चाहे पास लाख हौ दाम
क्रमशः जारी.... अगले अंक में
नवीन श्रोत्रिय उत्कर्ष

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 25, 2018 at 2:17pm

आ. नवीन जी, सुंदर रचना हुयी है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Samar kabeer on November 19, 2018 at 2:23pm

जनाब नवीन श्रोत्रिय उत्कर्ष जी आदाब,ओबीओ पटल पर पहली बार आपकी रचना से रूबरू हो रहा हूँ ।

आल्हा वीर छन्द पर अच्छी रचना हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

कृपया ध्यान दे...

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