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महफ़िल में नशा प्यार का लाना ही नहीं था

221 1221 1221 122

********************

महफ़िल में नशा प्यार का लाना ही नहीं था ।
तो नग़मा मुहब्बत का सुनाना ही नहीं था ।

रौशन किया जो हक़ से तुझे रोज़ ही दिल में,
वो तेरी निगाहों का निशाना ही नहीं था ।

कर-कर के भलाई यहाँ रुस्वाई मिले तो,
ऐसा तुझे किरदार निभाना ही नहीं था ।

है डर तुझे हो जाएगा फिर दिल पे वो क़ाबिज़,
सँग उसके तुझे जश्न मनाना ही नहीं था।

होते हैं अगर कत्ल यहाँ हिन्दू मुसलमाँ, 
मंदिर किसी मस्ज़िद को बनाना ही नही था।

डर डूब के मरने का तेरे दिल में था इतना,
तो इश्क़ के दरिया में नहाना ही नहीं था ।

*****

मौलिक व अप्रकाशित

हर्ष महाजन

Views: 1007

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 16, 2018 at 8:18am

आ. हर्ष जी,
ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है ...जिसके लिए आप को बधाई 
एक दो बातें संज्ञान में लाना चाहूँगा ..
मतले   के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है ..यानी  जाम उठाने का मुहब्बत के नगमे से   कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है.
फिर उठाना और सुनाना दोनों   उठ और सुन (मूल शब्द) के क्रियारूप होकर योजित   हैं   तथा   उठ व सुन    में कोई काफ़िया नहीं है अत: यह दोषपूर्ण   है ..यही कहानी हुस्न-ए-मतला के साथ है ..निभ ..उठ ..
बाकी   शेर अच्छे है ...
मंच पर काफिये से सम्बंधित   जानकारी उपलब्ध है ..पढ़कर लाभ लीजिये 
सादर 

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