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इश्क में खुद जाँ लुटाने आ गए (ग़ज़ल 'राज')

हाजिरी वो ज्यों  लगाने आ गए

याद उनको फिर बहाने आ गए

 

मुट्ठियों में वो नमक रखते तो क्या 

जख्म हमको भी छुपाने आ गए

 

चल पड़े थे हम कलम को तोड़कर

लफ्ज़ हमको खुद बुलाने आ गए

 

जेब मेरी हो गई भारी जरा 

दोस्त मेरे आजमाने आ गए

 

रोज लिखना शायरी उनपर नई  

याद हमको वो फ़साने आ गए

 

शमअ इक है लाख परवाने यहाँ 

इश्क में खुद जाँ  लुटाने आ गए  

 

झील में अश्जार के धुलते  बदन

कुछ परिंदे भी नहाने आ गए 

 

देख कर आकाश पर कौस-ए-क़ज़ह  

लोग आँखों से चुराने आ गए  

 

आशनाई उनकी आँखों से कमाल

अश्क मेरे झिलमिलाने आ गए

 

हाथों पैरों में हिना गीली मगर

बज़्म की रौनक बढाने आ गए

------मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by rajesh kumari on May 21, 2017 at 4:38pm

आद० शून्य आकांक्षी जी ,ग़ज़ल पर आपकी शिरकत से हर्षित हूँ आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हो गया दिल से बहुत बहुत आभारी हूँ |

Comment by C.M.Upadhyay "Shoonya Akankshi" on May 21, 2017 at 4:16pm

"मुट्ठियों में वो नमक रखते तो क्या 

जख्म हमको भी छुपाने आ गए"
वाह वाह ! बहुत खूब ! शानदार ग़ज़ल | हार्दिक बधाई आदरणीया  rajesh kumari जी  .......


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 5, 2017 at 6:22pm

आद० गिरिराज भंडारी जी,आपको ग़ज़ल पसंद आई तहे दिल से शुक्रिया समर भाई जी के मार्गदर्शन में यूँही आगे बढ़ते रहें दुआ है खुदा से  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 5, 2017 at 6:20pm

आद० समर भाई जी पुनः आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 5, 2017 at 6:16pm

आदरणीया राजेश जी , बेहतरीन गज़ल कही है आपने , बधाइयाँ स्वीक्कार करें । आ. समर भाई की प्रतिक्रिया से एक और शब्द का ज्ञान हुआ .. उनका भी आभार ।

Comment by Samar kabeer on April 5, 2017 at 10:46am
अब ठीक हो गया बहना ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 4, 2017 at 6:44pm

ओह्ह्ह भाई जी फिर से गलती हो गई जबकि मूल पोस्ट में ये सुधार कर  चुकी हूँ अच्छा आपने फिर ध्यान दिलाया ये तो अर्थ का अनर्थ हो गया अभी संशोधित करती हूँ |

Comment by Samar kabeer on April 4, 2017 at 6:24pm
बहना 'कौस-ए-क़ज़ा' नहीं "कौस-ए-क़ज़ह','क़ज़ा'तो मौत है ,
'कौस'का अर्थ है '(1)कमान(2)दायरे का एक हिस्सा)(3)आसमान का नवां बुर्ज जो कमान की शक्ल का नज़र आता है ।
और "क़ज़ह"का अर्थ है,'ज़र्द सब्ज़ सुर्ख़ रंग ।
इसलिये फिर से संशोधन करें और 'कौस-ए-क़ज़ा' की जगह "कौस-ए-क़ज़ह' लिखें ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 4, 2017 at 4:20pm

मोहतरम जनाब तस्दीक साहब आपको ग़ज़ल पसंद आई तह-ए-दिल से आपका बहुत- बहुत शुक्रिया| 


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Comment by rajesh kumari on April 4, 2017 at 4:17pm

आद० नीलेश भैया, आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया आपका |

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