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ग़ज़ल....मुहब्बत आह भरती है इबादत हार जाती है

1222 1222 1222 1222
सदा पत्थर से टकरा कर मेरी बेकार जाती है
मुहब्बत आह भरती है इबादत हार जाती है

हमारे दर्द के किस्से बराए आम हैं कब से
तुम्हारे आसरों तक भी कुई चीत्कार जाती है ?

अज़ब सी बहशतों में आजकल डूबा हुआ है दिल
सँभालूँ जो मैं दरवाजा दरक दीवार जाती है

जरा सा रोक लो ये गम जरा सीं राहतें दे दो
मुसलसल बेरुखी भी अब ह्रदय के पार जाती है

तुम्हें भी इल्म हो जायेगा तुम भी जान जाओगे
क्षितिज के पार सच्चे इश्क़ की झनकार जाती है
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment by Samar kabeer on February 15, 2017 at 3:26pm
जनाब बृजेश कुमार'ब्रज'साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

'सदा पथ्थर से टकरा इस क़दर बेकार जाती है'
मतले का ये ऊला मिसरा देखिये,इसमें व्याकरण दोष भी है और 'इस क़दर'शब्द भर्ती का है, इसे फिर से कहने की ज़रूरत है ।

'तुम्हारे हूजरे तक भी कुई चीत्कार जाती है'
इस मिसरे में 'हूजरे'ग़लत शब्द है,सही शब्द है,"हुजरे"देखियेगा ।

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