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एक जलज - वीराने में
चहकता हुआ
महकता हुआ
दाग नहीं लगने दिया कभी
आब के छींटे का भी
चक्रवातों में घिरा रहा था
जिन्दगी भर।

लौट चले वो झख मारकर
धक्के खाकर थक हारकर
नाखून घिसाकर दाँत किटकिटाकर
आँधी तूफान भँवर
और
चक्रवात भी।

फिर भी लहलहाता रहा
वह वारिज
कोशिश में
अंबर को नापने की।

चुभने लगी
खुद की ही कलियाँ
शूल बनकर
सताने लगे स्व-सद्कर्म
भूल बनकर।

समझ में आया
क्या खोया?
क्या पाया?
जीवन में
फूल बनकर।

मजबूर निढाल चोटिल
वक्त ने सिखा दिया
वक्त के साथ
ढल जाना।

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by pratibha pande on December 24, 2016 at 9:00am

  जिन्दगी की सच्चाईयों ने ढलना सिखा दिया .,, सुन्दर कविता   हार्दिक बधाई आपको आदरणीय सुरेश जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 24, 2016 at 1:45am

आदरणीय सुरेश जी, अनुकूलन ही प्रकृति का नियम है. बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर. 

Comment by आशीष यादव on December 23, 2016 at 1:11am
Sahi bat h. Jo fool bankar khushi deta h khud ko dukho se jodna padta h.
Behatarin kawita.
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on December 22, 2016 at 7:48pm
सुन्दर प्रस्तुति । बधाई स्वीकारें आदरणीय ।

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