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ओ मेरी जान! //रवि प्रकाश

ओ मेरी जान!
तुम्हें जान से कम कुछ कहूँ
तो कितना कम लगता है
वैसे तो हर संबोधन में तुम केवल
अंजुरी भर ही आते हो,
फिर भी जब कहती हूँ अपनी जान तुम्हें
मैं ख़ुद को ज़िंदा पाती हूँ,
मुझको यूँ लगता है
जैसे दूर कहीं क्षितिज पर
दो अलग अलग उड़ते बादल
अपना-अपना रंग-रूप,आकार भूल कर
एक दूजे में घुलमिल जाएँ
और अलग कर पाना अब उनको
नामुमकिन बात लगे प्यारे!
(देखो मैं भी कविता करने लगी हूँ...वाह! वाह!)
और बताऊँ?
क्यों बताऊँ?
छोड़ो, बुरा मान जाओगे!
अच्छा बोल रही हूँ बाबा!
नाराज़ क्यों होते हो?
बस यही कि......
तुम कितने बुद्धू हो!
हा हा हा हा....
कैसे भोलेपन से कह लेते हो
कि-"मेरे होने न होने से क्या है
तुम ख़ुद प्यारी हो,ज़िंदादिल हो
हर तरह से खुशियों के क़ाबिल हो"
उफ्फ, कैसे बदलूँ सोच तुम्हारी
न जाने कब मानोगे!
और सच कहूँ तो यही बात तुम्हारी
(ख़ुद को मेरी खुशियों की
वजह न मानने वाली यार...)
मुझको मुझसे दूर करके
पास तुम्हारे ले जाती है।
और भला ये भी तुम कैसे कह लेते हो
कि कौन चाहतों से तुमको देखा करता है!
कौन तुम्हारी सुनता है!
मन ही मन तुमको पूजा करता है!
मुझसे पूछो तो जानो
तुम यूँ ही अनजाने में भी
हँस कर देखो इसको, उसको, जिसको भी
वो बरसों तक महसूस करे
तुम्हारी निश्छल आँखों को
(पर तुम मानोगे थोड़े ही....चोर कहीं के!)
और सुनोगे?
रहने दो उकता जाओगे
तुमको सब मालूम तो है
मैं तो पागल हूँ जाने क्या क्या सोचा करती हूँ
तुम हँसते होंगे चुपके-चुपके........
अच्छा कहती हूँ यार!
जब मैं मंदिर की सीढ़ी चढ़ती हूँ
(केवल मैं ही
क्योंकि तुम तो नास्तिक कहलाते हो....गंदे बच्चे!)
और आदतन तुम कहते हो
अच्छा वर, अच्छा घर, अच्छा ससुर माँगना,
मैं मुँह फेर चल देती हूँ
शायद तुमको मालूम नहीं
तुम जो मिल गए हो बिन माँगे मुझको
अचानक यूँ ही थोड़े से जप से, थोड़े तप से
उसके लिए मैं
उस विराट के एक अकिंचन बुत के आगे
बस धन्यवाद कह लेती हूँ
और रोमांचित होती हूँ कि
बाहर तुम हो
मेरी... केवल मेरी राह देखते
(पता है मैं इसीलिए जानबूझ कर
ज़रा देर से आती हूँ)
दुनिया तुमको अपना कहने को तरस रही है
और तुम मुझको अपना कहते हो
इससे बढ़ कर कुछ माँगूँ तो
मैं अपराधी,मेरा तन-मन पापी है।
ओ जान मेरी!
तुम्हें जान से कम क्या बोलूँ मैं
तुम ही बोलो!
ओह, मगर तुम तो बुद्धू हो!
बोलोगे कि नाम ही ले लो
(पागल..........बेशर्म कहीं के!)
जानते सब हो मगर मानते नहीं हो कुछ भी।
-29.10.2016
मौलिक एवं अप्रकाशित।

Views: 579

Comment

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Comment by Ravi Prakash on November 5, 2016 at 11:35pm
धन्यवाद समर कबीर जी।
Comment by Samar kabeer on November 4, 2016 at 5:28pm
जनाब रवि प्रकाश जी आदाब,बढ़िया लगी आपकी कविता,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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