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पंडितजी पूजा के पहले साफ करते करते बुदबुदाते न खुश न दुखी अजीब सी ऊहापोह में दबाए रखते क्रोध को,न बाहर आने देते न जज्ब ही कर पाते।

"क्या हो गया पंडित जी ?"
"देखो तो, पूरा गर्भगृह गंदा कर देते हैं, रोज रोज रगड़ रगड़ के साफ करना पड़ता है।"
"अरे ये तो बहुत गंदगी करते हैं।"
मूर्ति की ओर इशारा करते हुए,"सब इनकी मर्जी है।"
"क्या इनकी मर्जी, शाम को सब प्रसाद उठा लिया करो,और बंद कर दो सारे बिल,पिंजरा भी रख दो।"
"शुभ शुभ बोलो भइया, उनका भी तो हिस्सा है इस चढावा में, हम अकेले ही तो नहीं खा सकते, उनका हिस्सा उन्हें छोड़ देते हैं।"
"उनका काहे का हिस्सा पंडित जी ?"
"अरे तुम्हें मालूम नहीं सभी अर्जियां इन्हीं के मार्फ़त तो जाती हैं, हम इनके कान में सुना देते हैं।"
"अरे बा , जिनके खुद के कान इतने बड़े बड़े है,उन्हें सुनाने के लिये,दूसरे के कान में बोलना पड़ता है।"
"अरे धीरे बोलो उनके वाहन है,सदा उनके दरवार में रहते हैं।"

वाह पंडित जी यहाँ भी बिचौलिये ।

.

पवन जैन,जबलपुर।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Pawan Jain on June 14, 2016 at 11:00am

कथा की सराहना हेतु धन्यवाद आदरणीय राहिला जी ।

Comment by Rahila on June 13, 2016 at 1:24pm
बहुत खूब, शानदार पंच "यहां भी बिजौलिये "बहुत बधाई आपको आ. सर जी! सादर प्रणाम

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