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नज़र अपनी सितारों पर टिकाने से जरा पहले--(ग़ज़ल)--मिथिलेश वामनकर

1222—1222—1222—1222

 

नज़र अपनी सितारों पर टिकाने से जरा पहले

जमीं पर तुम जमा लेना सलीके से कदम अपने

 

फलक को चाँद भी रौशन करे खुद के उजालों से

मगर वो दाग रखता है हमेशा पास में अपने

 

अगर लफ्जों की ज्यादा पत्तियां बिखरी हुई होगी

तो मतलब के समर हमको दिखाई दे नहीं सकते

 

मुहब्बत के लिए भटका किये जब दर-ब-दर यारो

तो सीधे रास्ते पे ला के छोड़ा है मुहब्बत ने

 

अगर भ्रम है हमेशा भीड़ केवल सत्य कहती है

यकीनन आप दुनिया को जरा सा भी नहीं समझे

 

भरोसा वो परिन्दा है लिए जो आस गाता है

अंधेरों में उजालों की, सहर से भी बहुत पहले

 

अकेले रोज़ रहकर इस अकेलेपन को जीता है

फतह इससे बड़ी कुछ और हो तो आप ही कहिये

 

सुना है फिर मनुज अवतार में भगवान् आए हैं

सभी से रोज मिलते हैं इसी उम्मीद में हँस के

 

हमे आज़ाद होने की हमेशा लालसा लेकिन

न जाने क्यों स्वयं के बन्धनों से हम रहे चिपके

 

खुदा ने भूल जाने की अजब दौलत तो बख्शी हैं

मगर फिर भी सभी बस याद करने में लगे रहते

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by मिथिलेश वामनकर on November 3, 2015 at 10:18pm

आदरणीय गिरिराज सर, इस प्रयोग पर आपका अनुमोदन आश्वस्तकारी है. आपने सही कहा यदि केवल मात्रिक काफिया लिया जाए तो रदीफ़ के साथ ही ग़ज़ल ठीक लगती है.  गैर मुरद्दफ ग़ज़ल वो भी केवल मात्रिक काफिया के साथ बस एक प्रायोगिक प्रयास है. मैं भी काफिया रदीफ़ वाली गज़लें ही ज्यादा पसंद करता हूँ और उसमें सहज भी महसूस करता हूँ. आपके विचार से मैं पूरी तरह सहमत हूँ. सादर 


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Comment by गिरिराज भंडारी on November 3, 2015 at 6:39pm

आदरनीय मिथिलेश भाई , खूबसूरत मतला से शुरू हुआ सफर अंत तक बढ़िया रहा । हार्दिक बधाइयाँ गज़ल के लिये ।

नियम से गैर मुरद्दफ सही है , लेकिन केवल मात्रिक काफिया लेने से मज़ा कम आता है , ऐसा मेरा विचार है ।


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Comment by मिथिलेश वामनकर on November 3, 2015 at 5:00pm

आदरणीय श्याम नरेन् जी ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार

Comment by Shyam Narain Verma on November 3, 2015 at 11:05am
"क्या बात है ..... बहुत खूब ... बधाई आप को "

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