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उंगलियाँ सब पर उठातें रहें है हम............

उंगलियाँ सब पर उठातें रहें है हम,
आईनों से चेहरा छिपातें रहें है हम,

भ्रष्टाचार को हमनें जरुरत बना लिया,
मुल्क को अपनें ड़ुबातें रहें है हम,

रोंशनी से तिलमिलाती है आंखें हमारी,
बेईमानी से नज़रें मिलातें रहें है हम,

सियासत के बकरों का पेट नही भरता,
देश को चारे में खिलातें रहे है हम,

कितने ही बच्चें सोतें हैं यहाँ भूखें,
और सांपों को दुध पिलातें रहें हैं हम,

'अन्ना जी' का बहुत बहुत शुक्रियां,
वर्ना तो धोखा ही खातें रहें हैं हम,

'अमि' कुछ कर लो अभी वक्त हैं,
सोने की चिड़ियां जलाते रहें हैं हम,

-अमि'अज़ीम'

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Comment by Abhinav Arun on April 9, 2011 at 3:25pm
bahut khoob amitesh ji प्रभावशाली सामयिक रचना !!! हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !!
Comment by अमि तेष on April 9, 2011 at 3:06pm
Thanks Saahil Bhai..
Thanks Ganesh Sir....
ganesh sir kay pahle ki aapecha kafiya bandi teek hai...
Comment by Saahil on April 8, 2011 at 10:06pm

सियासत के बकरों का पेट नही भरता,
देश को चारे में खिलातें रहे है हम,

कितने ही बच्चें सोतें हैं यहाँ भूखें,
और सांपों को दुध पिलातें रहें हैं हम,

 

बहुत  खूबसूरत  अशआरों  में  देश  की   ताज़ा  हालत  को  बयां  किया  है  आपने !


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 8, 2011 at 8:36pm
अमितेश जी , बहुत ही सुंदर ग़ज़ल प्रस्तुत किया है आपने, सभी शे'र बुलंद ख्यालात से लबरेज है , बधाई आपको |

कृपया ध्यान दे...

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