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ठूंठ होते गांव - लघुकथा

"ठीक है पिताजी। मान लो आप कि मैं नास्तिक हूँ और रीति रिवाज नही मानता।" बेटे ने सजल आँखो से कहा।
"बेटा। एक तुम्हारे ना मानने से समाज के रिवाज खत्म नही हो जायेगें।" व्यथित मन से पिता ने जवाब दिया।
"जानता हूँ नही खत्म होगें। लेकिन इस कठोर परम्परा के लिए हर दिन पेड़ो से काटी जाने वाली लकड़ी के कारण ठूंठ होते गांव में एक नई परम्परा की शुरूआत तो हो सकती है।" कहते हुये बेटे ने रूंधे लेकिन कड़े मन से गांव में पहली बार मगांयी गयी बिजली शव दाह घर की गाडी में अपनी पत्नि के शव को ले जाने की तैयारी शुरू कर दी।

विरेन्दर वीर मेहता' (मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Saurabh Pandey on May 28, 2015 at 2:43am

आपकी लघुकथाओं में वैचारिकता बहुत महीनी से नत्थी हुआ करती है. लेकिन इस बार तमाम मार्मिकता के बात उस गहराई तक नहीं पहुँच पायी. इस लघुकथा का विषय विन्दु अत्यंत प्रासंगिक है लेकिन इस बार व्यवस्थित रूप से साझा नहीं हो पाया.
बहरहाल, इस सहभागिता के लिए हार्दिक धन्यवाद

Comment by aman kumar on May 25, 2015 at 12:41pm

अच्छे  विचार है आपके 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on May 25, 2015 at 12:06pm

वीरेंद्र वीर मेहता जी, संस्कारों  के पीछें बहुत कुछ सोच विचार होता है | कही दफनाया जाता है तो कही जलाया जाता है और कही तो नदी में बहा  ही  दिया जाता है | पेड़ उगते है पत्ते आते है फिर पतझर में झाड़ते है | श्रृष्टि का क्रम यूँ ही चलता रहता है | इससे अधिक नुक्सान तो गाँव वाले बही बल्कि बेतरतीब  जंगलों को उजाड़ कर शहर ससाने में किया जा रहा है | विद्युत शवडाह  गृह अभी गाँव गाँव में है भी कहा ?

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