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फ्लेक्सिबिलिटी....(लघुकथा)

“ओय! रितु.. अब बता कैसी लग रही हूँ...?” सोनिया ने पूरा ट्रडिशनल श्रृंगार करके, अपनी फ्रेंड से पूछा

“अरे! सोनिया. तू तो बिलकुल अबला लग रही है यार. भारतीय नारी..हा हा हा हा”

“हाँ! यार..अबला ही तो दिखना होगा. ऐसा मेरे वकील का कहना है, ताकि कल कोर्ट में जज सहानुभूति के तौर पर जल्दी से मेंटेनेंस बना देगा तो  मुझे अपने हसबेंड के घिसे-पिटे विचारों और बूढ़े सास-ससुर की खांसी-खुजली से छुटकारा मिल जाएगा.”

"उफ्फ!! बड़ी दूर की सोच होती है यार, वकीलों की.. अब चल ये पकड़ तेरे जींस-टॉप, चेंज कर  और जल्दी चल के कोल्ड कॉफ़ी पिलवा ”

                                          

 

  जितेन्द्र पस्टारिया

(मौलिक व् अप्रकाशित)

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Comment by Hari Prakash Dubey on May 18, 2015 at 10:23pm

हा हा हा , आ. जीतेन्द्र  भाईसाहब  , कहते हैं  की  ग़ालिब  का  है  अंदाज़े बयाँ  और   ...बहुत   सुन्दर  लेखन   !  गज़ब की  कथा   !  सादर  

 

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on May 18, 2015 at 5:05pm

.. अबला नारी का ढोंग उफ़ ये नैतिकता हमें कहाँ ले जाकर छोड़ेगी ?  बहुत सुन्दर कथा आदरणीय जीतेंदर भाई ... सादर बधाई

Comment by aman kumar on May 18, 2015 at 3:28pm

अच्छी कथा है जितेंद्र भाई ! 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 18, 2015 at 11:07am

इसी सोच ने मार दिया , हमारी संस्कृति को ऐसी सोच वाली का अलग ही होजाना अच्छा होता है , चाहे पूरी दौलत दे के भीख  मांगाना  पड़ जाये , ये वो हैं खुद अपनी बरबादी तक दौड़ के पहुँच ही जायेंगे ॥ बहुत उम्दा लघुकथा कही   हार्दिक बधाई आपको ॥

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 18, 2015 at 10:33am

रचना की सराहना हेतु आपका ह्रदय से आभार, आदरणीय श्याम नारायण जी

सादर!

Comment by Shyam Narain Verma on May 18, 2015 at 10:00am
बहुत-बहुत बधाई इस शानदार लघु कथा के लिए

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