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नवगीत
मन थोड़ा भटका हुआ है!
सपने टूटे,दिल भी टूटा,
रातें रूठीं,दिन भी रूठा,
उम्मीदों का चाँद झाड़ पर
देखो ना अटका हुआ है!
मन थोड़ा भटका हुआ है!
नयन-गगन में नजर गड़ी,
कैसी फिजा पल्ले पड़ी,
सूख चले अब जलद-नयन,
मानस में खटका हुआ है!
मन थोड़ा भटका हुआ है!!
उठती-सी लहरें उमंगित,
उर-अर्णव कितना तरंगित,
पूरी पूनम थी कल की रात,
प्रात हुआ, झटका हुआ है!
मन थोड़ा भटका हुआ है!!!
@मनन

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Comment by Manan Kumar singh on April 12, 2015 at 9:52pm
आभार आपका गिरिराज भाई, आपकी सलाह शिरोधार्य है।

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Comment by गिरिराज भंडारी on April 12, 2015 at 8:44pm

आदरणीय मनन भाई , रचना अच्छी हुई है , हार्दिक बधाई !! कहीं कहीं मात्रिकता मे फर्क के कारण गेयता मे कमी है ॥

Comment by Manan Kumar singh on April 12, 2015 at 5:21pm
आभार आपका आदरणीय
Comment by Dr. Vijai Shanker on April 12, 2015 at 4:54pm
सुन्दर प्रस्तुति, आदरणीय , बधाई, सादर।

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