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जीवन - एक गीतिका

पद भार : २४ मात्रा 

जीवन की सरिता नीर बहाने लगती है

मुझसे जब मेरे तीर छुड़ाने लगती है

 

बोझ उठा कर इन जखमों का जब थक जाती

सागर की लहर मुझे समझाने लगती है

 

छिप जाती हूँ मैं जब दुनिया से कोने में  

वो मुझ को सहेली बन सताने लगती है

 

आंसू मेरे जब छिपने लगते आँखों में

वो मुझ पर जीभर प्यार लुटाने लगती है

 

भागती हूँ जीवन से मैं तोड़कर सब कुछ

अपने अधिकार मुझ पर जताने लगती है

 

ताबूत कफ़न का रास्ता जब चलती हूँ “निधि”  

जिंदादिल जिंदगी मुझे बचाने लगती है 

निधि 

मौलिक और अप्रकाशित 

Views: 651

Comment

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Comment by Nidhi Agrawal on March 17, 2015 at 10:40am

@मिथिलेश वामनकर जी आपका बहुत धन्यवाद्


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 17, 2015 at 10:17am

सुन्दर रचना हेतु हार्दिक बधाई 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 16, 2015 at 9:22pm

आदरणीया निधि जी, अच्छी रचना हुई है, शीर्षक में 'एक गीतिका' पढ़ तनिक भ्रम में था कि शायद लेखिका 'गीतिका छंद' में रचना प्रस्तुत की हैं. बहरहाल इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें.

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