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ग़ज़ल : गाँव कम हैं प्रधान ज्यादा हैं

बह्र : २१२२ १२१२ २२

---------

फ़स्ल कम है किसान ज़्यादा हैं

ये ज़मीनें मसान ज़्यादा हैं

 

टूट जाएँगे मठ पुराने सब

देश में नौजवान ज़्यादा हैं

 

हर महल की यही कहानी है

द्वार कम नाबदान ज़्यादा हैं

 

आ गई राजनीति जंगल में

जानवर कम, मचान ज़्यादा हैं

 

हाल क्या है वतन का मत पूछो

गाँव कम हैं प्रधान ज़्यादा हैं

---------

(मौलिक एवम् अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 3, 2015 at 11:48am

शुक्रिया krishna mishra जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 3, 2015 at 11:47am

शुक्रिया Hari Prakash Dubey जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 3, 2015 at 11:47am

शुक्रिया मिथिलेश वामनकर जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 3, 2015 at 11:46am

बहुत बहुत शुक्रिया  MAHIMA SHREE जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 3, 2015 at 11:45am

आदरणीय योगराज जी, एवं  बागी जी आपने बिल्कुल दुरुस्त फ़रमाया है। काफ़िया के नियमों के अनुसार किसान और मसान हमकाफ़िया नहीं हो सकते। इस संबंध में योगराज जी बिल्कुल सही हैं कि यहाँ हर्फ़े रवी ‘स’ है और इसके पहले स्वर साम्य नहीं है। पर कई शायरों ने ये छूट ली है जैसे इकबाल साहब की ये ग़ज़ल देखें।

फिर चिराग़े-लाल से रौशन हुए कोहो-दमन
मुझको फिर नग्मों पे उकसाने लगा मुर्गे-चमन।
मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं
तन की दौलत छाँव है, आता है धन जाता है धन।

और मैं भी बहुत मज़बूर होकर यदा कदा ली गई इस छूट का इस्तेमाल कर रहा हूँ। सामन्यतया मेरा प्रयास रहता है कि मैं ये छूट न लूँ पर यहाँ बह्र छोटी है और काफ़िया तंग है। इसलिए। 

Comment by दिनेश कुमार on March 3, 2015 at 6:01am
हर एक शे'र लाजवाब कहा आदरणीय धर्मेन्द्र जी , दाद कबूल कीजिए
Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on March 3, 2015 at 3:18am

आ गई राजनीति जंगल में

जानवर कम, मचान ज़्यादा हैं

वाह... सही कहा आप ने आदरणीय धर्मेन्द्र जी ! 

Comment by नादिर ख़ान on March 2, 2015 at 11:45pm

आ गई राजनीति जंगल में

जानवर कम, मचान ज़्यादा हैं

 

हाल क्या है वतन का मत पूछो

गाँव कम हैं प्रधान ज़्यादा हैं

बहुत खूब कहा आदरणीय धर्मेन्द्र जी 

Comment by somesh kumar on March 2, 2015 at 11:39pm

सच्ची गज़ल ,अच्छी गज़ल |

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 2, 2015 at 11:38pm

सुन्दर गजल के लिए बधाई!भाई धर्मेन्द्र..

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