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बाजरे की बालियाँ...... ग़ज़ल (मिथिलेश वामनकर)

2122—2122—2122—212

 

खेत की, खलिहान की औ गाँव की ये मस्तियाँ

कितनी  दिलकश हो गई है  बाजरे की बालियाँ

 

वो कहन क्यूं खो गई जो महफिलों को लूट लें

हर बड़ी बकवास  पर  अब बज रही है तालियाँ

 

आप  इतना तो  बताएं  क्या सियासतदार  है?

आपकी  मुस्कान  पे भी आ रही है  मितलियाँ

 

खींच  तानी  से भला  किसको  हुआ  है फायदा

किस तरह बरसे बता गर लड़ पड़ी जब बदलियाँ

 

मंजिले   उसने   बताई  परबतों    के  पार   है

बीच  में  अक्सर लुभाती है   महकती  वादियाँ

 

ख्वाहिशे उनकी भला  क्योंकर  समंदर  हो गई

ताज उनकों चाहिए  औ  ताज पे भी  कलगियाँ

 

ये मशालें बुझ रही  'मिथिलेश' अबके खुद जलो

और अंगारों से फिर उठने दो कातिल बिजलियाँ

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 6, 2015 at 2:10am

आदरणीय हरिप्रकाश दुबे जी आपसे सदा से स्नेह और सराहना मिलती रही है. आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया से सदैव उत्साहवर्धन होता है. हमेशा की तरह इस स्नेह के लिए हृदय से आभारी हूँ.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 6, 2015 at 2:07am

आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी ग़ज़ल के प्रयास पर स्नेह, सराहना एवं उत्साहवर्धक व सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार, हार्दिक धन्यवाद 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 6, 2015 at 2:06am

आदरणीय खुर्शीद सर, ग़ज़ल पर आपकी  सराहना एवं सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार, हार्दिक धन्यवाद 

यदपि मैं आपकी समीक्षात्मक टिप्पणी की प्रतीक्षा कर रहा था. मैंने यह ग़ज़ल आपसे और गुनीजनों से मार्गदर्शन हेतु पोस्ट की थी. आशा है आप विद्यार्थी को अवश्य मार्गदर्शन प्रदान करेंगे.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 6, 2015 at 2:01am

आदरणीय जितेन्द्र जी ग़ज़ल के प्रयास की सराहना एवं उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार, हार्दिक धन्यवाद 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 6, 2015 at 2:00am

आदरणीया सविता जी रचना पर स्नेह, सराहना एवं उत्साहवर्धक सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार, हार्दिक धन्यवाद 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 6, 2015 at 1:59am

आदरणीय विश्व राज सिंह राठौर भाई जी, सराहना, उत्साहवर्धक व सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार, हार्दिक धन्यवाद 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 6, 2015 at 1:58am

आदरणीय डॉ विजय शंकर सर, रचनाओं पर आपका स्नेह सदैव मिलता है,  सराहना एवं उत्साहवर्धक सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार, हार्दिक धन्यवाद 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 6, 2015 at 1:56am

आदरणीय श्याम नरैन वर्मा जी, सराहना एवं उत्साहवर्धक सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार, हार्दिक धन्यवाद 

Comment by Chhaya Shukla on February 5, 2015 at 7:57pm
आदरणीय प्रभावी गजल हुई है |
बधाई आपको

 

 

 

 

 

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 5, 2015 at 7:27pm

बहुत सुन्दर ग़ज़ल लिखी है मिथिलेश जी 

इस शेर पर तो बारम्बार बधाई ---

ख्वाहिशे उनकी भला  क्योंकर  समंदर  हो गई

ताज उनकों चाहिए  औ  ताज पे भी  कलगियाँ

मक्ता भी खूब है -----हार्दिक बधाई ग़ज़ल इतनी अच्छी बन रही है तो माइंड न करें तो एक दो सुझाव देना चाहती हूँ 

एक  जगह मुझे संशय है ---

खींच  तानी  से भला  किसको  हुआ  है फायदा

किस तरह बरसे बता गर ठन गई जो बदलियाँ

 इस शेर में आप के उला से सानी का सामंजस्य बनाते हुए भाव ये हैं की आप बदलियों की खींचा तानी अर्थात किसी से मतभेद की बात करना चाह रहे हैं सानी में ठन गई जो बदलियाँ व्याकरण के हिसाब से ठीक नहीं है ...बदलियों की किसके साथ ठन गई ??अर्थात मिसरा स्पष्ट नहीं है ,ठनना शब्द वहाँ प्रयोग होता है जहाँ दो ग्रुप के बीच कोई लड़ाई/बात  ठनती है और निःसंदेह आपने ठन शब्द इसी भाव में लिया होगा ...इस पर दुबारा गौर करें 

अब इस शेर की बात करें ----

मंजिले   उसने   बताई  परबतों    के  पार   है

सिम्त  मेरे  दिख  रही  है  वादियाँ ही वादियाँ

 इसमें सानी को और प्रभावशाली स्पष्ट बना सकते हो 

जैसे

मंजिले   उसने   बताई  परबतों    के  पार   है

--बीच में मुझको लुभाती हैं नशीली/महकती वादियाँ  ----या ऐसा ही कुछ जिससे उला से रीलेट हो 

 

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