ग़ज़ल : - अपना घर आप जलाने का हौसला कर लूं
वक्त वीरान है निशानियां फ़ना कर लूं ,
अपना घर आप जलाने का हौसला कर लूं |
आपकी बज़्म में अशआर कई लाया हूँ ,
हस्बे मामूल मै रोशन ज़रा शमा कर लूं |
जिन तजुर्बों ने मुझे शायरी सिखायी है ,
वक्ते रुखसत खुशी से उन्हें विदा कर लूं |
टाँक दूं झीळ से बदन पे चांदनी का लिबास ,
सुबह से पेश्तर चाहूँ गुनाह इतना कर लूं |
गो कि कुछ लोग मेरे मरने की दुआ में हैं ,
मुझको मोहलत दे खुदा उनको मै सजदा कर लूं |
अब तो चेहरों पे कई चेहरे लगे हैं या रब ,
किसको बेगाना करूँ किसको मैं अपना कर लूं |
(@ अभिनव अरुण # १७-०३-२००४ )
Comment
बागी जी आपकी सलाह जम गयी और बात बन गयी लगता है -
टाँक दूं झीळ से बदन पे चांदनी का लिबास ,
सुबह से पेश्तर चाहूँ गुनाह इतना कर लूं |
ऐसा कर दिया है | चर्चा से सात साल बाद इस शेर का रास्ता निकला आभार आपका |
अरुण भाई चूकि ग़ज़ल बोलने के अनुसार ही कही जाती है तो हम गुनाह को गुना नहीं कह पायेंगे, पूरी ग़ज़ल में आपने कहन का विशेष ध्यान रखा है, उस तरीके से आप उस शे'र के काफिया को बदलना ही पड़ेगा, कुछ इस तरह से ( मैंने भी बहर का ध्यान नहीं रखा है )
टाँक दूं झीळ से बदन पे चांदनी का लिबास ,
सुबह से पेश्तर एक गुनाह अदना कर लूं |
कुछ इस तरह का प्रयोग किया जा सकता है, वैसे मैं भी तो इस इल्म का विद्यार्थी ही हूँ |
शुक्रिया बागी भाई | इधर कुछ मार्च की व्यस्तता के कारन् समय और मिज़ाज का मेल नहीं हो पा रहा है अतः डायरी से अपनी पुरानी कथनी करनी की झलक पेश कर रहा हूँ | आपको अच्छा लगा आभारी हूँ-
टाँक दूं झीळ से बदन पे चांदनी का लिबास ,
सुबह से पेश्तर एक और मै गुनाह कर लूं |
इस शेर को बोलने में गुनाह को दरअसल हम 'गुना' (ह)
कहते है अतः यह मोहलत ली थी मैंने इस बारे में सोचा था अब इसका समाधान भी आप कर देन तो अच्छा हो ,यकय इसे ऐसे लिखा जा सकता है यदि हाँ तो कृपया कर दे-
टाँक दूं झीळ से बदन पे चांदनी का लिबास ,
सुबह से पेश्तर एक और मै गुना कर लूं |
जैसा हो बताईगा ज़रूर वरना ये शेर हटा दे इसमें से |या कोई और काफिया ?
गो कि कुछ लोग मेरे मरने की दुआ में हैं ,
मुझको मोहलत दे खुदा उनको मै सजदा कर लूं |
बहुत खूब अरुण भाई , क्या बेहतरीन कहन है , सभी शे'र खुबसूरत लगे , चौथे शे'र के काफियाबंदी पर नजरेसानी की आवश्यकता है | दाद कुबूल करे |
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