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1222 / 1222 / 1222 / 1222
-
ग़ज़ल ने यूँ पुकारा है मेरे अल्फाज़, आ जाओ 
कफ़स में चीख सी उठती, मेरी परवाज़ आ जाओ

 

 

चमन में फूल खिलने को, शज़र से शाख कहती है 
बहारों अब रहो मत इस कदर नाराज़ आ जाओ



किसी दिन ज़िन्दगी के पास बैठे, बात हो जाए
खुदी से यार मिलने का करें आगाज़, आ जाओ



भला ये फ़ासलें क्या है, भला ये कुर्बतें क्या है
बताएँगे छुपे क्या-क्या दिलों में राज़, आ जाओ



हमारे बाद फिर महफिल सजा लेना ज़माने की
तबीयत हो चली यारों जरा नासाज़, आ जाओ



अकीदत में मुहब्बत है सनम मेरा खुदा होगा
अरे दिल हरकतें ऐसी ज़रा सा बाज़ आ जाओ



मरासिम है गज़ब का मौज़ से, साहिल परेशां है
समंदर रेत को आवाज़ दे- ‘हमराज़ आ जाओ’



ख़ुशी ‘मिथिलेश’ अपनी तो हमेशा बेवफा निकली
ग़मों ने फिर पुकारा है- ‘मिरे सरताज़ आ जाओ’

---------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर 
---------------------------------------------


बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
अर्कान – मुफाईलुन / मुफाईलुन / मुफाईलुन / मुफाईलुन
वज़्न – 1222 / 1222 / 1222 / 1222

 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 5, 2015 at 4:47pm

ऐसे तथ्यों के बारे में गणेश भाईजी, आपको पता ही है, मैं एक समय से प्रश्न उठाता रहा हूँ. समाधान चाहता रहा हूँ. मेरे जैसे कई-कई रचनाकार ऐसे प्रश्न उठाते रहे हैं. मुझसे पहले भी इन प्रश्नों पर उत्तर जानने को आग्रही रचनाकार रहे हैं.

आज की तारीख में अच्छा यह हुआ है कि वरिष्ठ और संयत साहित्यकार ऐसे प्रश्नों पर अपने मंतव्य मात्र किसी हठ के अंतर्गत न देकर, वैज्ञानिक सोच के आधार पर दे रहे हैं.

तभी आदरणीय ज़हीर कुरेशी साहब हों, आदरणीय एहतराम भाई साहब हों, या हिन्दी ग़ज़लों में तत्सम शब्दों का बहुतायत में प्रयोग करने वाले अन्य ग़ज़लकार हों, किसी भ्रम में नहीं हैं. आ. एहतराम भाई साहब का मानना है, कि शब्दों का मूल रूप जैसे कि सुब्ह, शह्र, बह्र आदि का प्रयोग हिन्दी शब्द के रूप में भी हो तो ऐसा करना उस वर्ग को भी संतुष्ट करेगा, जो लिपि में देवनागरी को अपनाने बावज़ूद ग़ज़लें कहता उर्दू भाषा में ही हैं. अन्यथा, फ़ारसी शब्दों को हिन्दी भाषा में जो रूप मिल गया है, वैसा प्रयोग कोई हिन्दी भाषी यदि करता है, तो इसपर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये.

गणेश भाई, तभी तो आज भोजपुरी, मैथिली, नेपाली या देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली कई-कई भाषाओं में ग़ज़लें कही जाने लगी हैं. ऐसी भाषाओं में फ़ारसी के, या सही कहिये उर्दू के, शब्द अपने मूल रूप प्रयुक्त होते ही नहीं हैं. और, यदि ऐसा किया गया तो यह उन भाषाओं के साथ घोर अन्याय होगा.

कुल मिला कर उर्दू शब्दों की अक्षरी (वर्तनी) या उसके मूल रूप को लेकर बनी एक वर्ग की ’अहमन्यता’ या ’सोच’ अब हिन्दी भाषियों को उतना आतंकित नहीं करती. जैसा आतंक दुष्यंत के जमाने में मचाया करती थी.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 5, 2015 at 4:27pm

आदरणीय सौरभ भईया आपकी टिप्पणी से अक्षरशः सहमत हूँ, साथ में यह भी कहना चाहता हूँ कि उर्दू के उन शब्दों का प्रयोग जिन्हें हिंदी एकतरह से समाहित / स्वीकार कर ली है उसे क्यों न देवनागरी लिपि के अनुसार लिखी जाय और मात्रा / वजन उसके हिंदी उच्चारण के अनुसार की जाय . उदाहरण : बहर और शहर 12.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 5, 2015 at 2:39pm

भाई अनुराग प्रतीकजी, आपने सही कहा - इससे और आसानी होती.
हाँ, यह अवश्य है.

आप को ज्ञात ही होगा, कि हिन्दी भाषा की कई साहित्यिक (राष्ट्रीय स्तर की) पत्रिकाएँ हैं, जो हिन्दी भाषा में नुख्ते का प्रयोग नहीं करतीं या यदि आज कुछ अपरिहार्य कारणों से बन्द भी हो गयी हैं, तो जब प्रकाशन में थीं, तो इनका प्रयोग नहीं किया करती थीं.

नुख़्ते का प्रयोग वस्तुतः एक ऐसा प्रयोग है जिसे लेखकों और पाठकों ने आपसी सहमति में भले अपना लिया गया है, वैयाकरणों ने अभी मान्यता नहीं दी है. यह कितना अच्छा या बुरा है यह इस टिप्पणी की सीमा से परे है. इस पर फिर कभी.

मैं वयोवद्ध साहित्यकार आदरणीय बुद्धिसेन शर्माजी के मंतव्य को उद्धृत करना चाहूँगा, जो अलग-अलग उर्दू और हिन्दी भाषा की रचनाओं के उद्भट्ट रचनाकार हैं. उनके मंतव्य के अनुसार देवनागरी लिपि में कोई लेखक नुख़्ते का प्रयोग करता है तो वह जान और समझ कर करे अथवा न करे. ऐसे दोनों तरह से शब्दों के प्रति समादर बना रहता है. 


इस हिसाब से आगे यह हिन्दी लेखकों के ऊपर निर्भर करता है कि वह हिन्दी भाषा में किसी आयातित शब्द को कैसे व्यवहृत करते हैं. क्योंकि हिन्दी ही नहीं संसार की हर भाषा अपनी उच्चारण परिपाटि (फोनेटिक्स) के अनुसार ही शब्दों का प्रारूप स्वीकारती है, उन शब्दों का मूल अक्षरी (वर्तनी) या उच्चारण चाहे कुछ रहा हो.

ऐसा संसार की सभी भाषाओं के साथ है.

दूसरे, भाषा चाहे जिस लिपि में लिखी जाय. उसकी गरिमा बनी रहनी चाहिये.

उर्दू भाषा को यदि देवनागरी लिपि में लिखी जाय तो उसके शब्दों को देवनागरी वर्तनी के आधार पर लिखा अवश्य जायेगा लेकिन उसके उर्दू व्यवहार को निभाना पड़ेगा. और उर्दू वर्णमाला के अक्षरों का ही आधार मुख्य होगा.

लेकिन ऐसा कुछ हिन्दी भाषा में उन्हीं शब्दों के साथ नहीं होना चाहिये या इसके लिए आग्रह नहीं होना चाहिये.

हिन्दी यदि देवनागरी लिपि का प्रयोग करती है तो इस भाषा के अपनाये गये शब्द अपने उसी रूप में होंगे जिस रूप में हिन्दी में स्वीकृत हो चुके हैं.

Comment by Anurag Prateek on January 5, 2015 at 12:49pm

चवर्ग केवल ‘ज’ है अतः नुक्ता लगाना भी लाज़िमी नहीं शायद , इससे और आसानी होती 

Comment by Anurag Prateek on January 5, 2015 at 12:43pm

पता नहीं क्या सही क्या ग़लत 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 5, 2015 at 11:52am
आदरणीय गिरिराज सर आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए ह्रदय से आभारी हूँ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 5, 2015 at 11:51am

आदरणीय सौरभ सर आपका रचना पर स्नेह और मार्गदर्शन मिल जाता है तो रचनाकर्म को बल और उत्साह मिल जाता है। आपने ज/ज़ की स्थिति से अवगत कराके बड़ा ढांढस बंधाया है। यहाँ ग़ज़ल जब देवनागरी लिपि में लिखी जाती है तो ऐसी बातों पर ध्यान नहीं जाताहै। नुक़्ते के साथ नुक्ताचीनी सदैव से जुड़ी रही है। आपने पूरी स्थिति स्पष्ट कर दी है। हार्दिक आभार। नमन।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 5, 2015 at 11:43am
आदरणीय राहुल भाई जी ग़ज़ल पर उत्साह वर्धक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार धन्यवाद।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 5, 2015 at 10:31am

आदरणीय मिथिलेश भाई , खूबसूरत गज़ल के लिये बधाई स्वीकार करें ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 5, 2015 at 10:17am

आदरणीय सौरभ भाई , ज के विषय बातें साफ करने के लिये आपका शुक्रिया ।

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