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गजल - कि तब जाके सुदर्शन को पडा मुझको उठाना था!

1222 1222 1222 1222

मेरी कुछ भी न गलती थी मगर दुश्मन जमाना था!
जमाने को मुझे मुजरिम का यह चोला उढ़ाना था!!

मेरे हाथों में बन्दूकें कहाँ थी दोस्त मेरे तब!
मैं तो बच्चों का टीचर था मेरा मकसद पढ़ाना था!!

हजारों कोशिशे की बात मैनें टालने की पर!
कहाँ टलती? रकीबों को तो मेरा घर जलाना था!!

मेरा भी था कली सा एक नन्हा,फूल सा बेटा!
वही मेरा सहारा था वही मेरा खजाना था!!

उतर आये लिये हथियार घर में जब अधर्मी वें!
कि तब जाके सुदर्शन को पडा मुझको उठाना था!!








मौलिक व अप्रकाशित!

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Comment by Anurag Prateek on December 29, 2014 at 5:48pm

मुझे शूली चढ़ा दो तुम मुझे फाँसी लगा दो अब!
ये दिन जब से चला तब से पता है आज आना था!!--कोई मतलब नहीं निकल रहा है 

Comment by Anurag Prateek on December 29, 2014 at 5:47pm

मुझे उस पर भरोसा था वो ऐसी हो नहीं सकती!
मगर उस बेवफा को भी जमाने को हँसाना था!!-- tukbandi hai

Comment by Rahul Dangi Panchal on December 29, 2014 at 4:02pm
आदरणीय khursheed khairadi जी अगर आप ऐब वाले शे'रो को इंगित कर देते तो मुझे सुधारने मे समझ हती
Comment by Rahul Dangi Panchal on December 29, 2014 at 3:54pm
आदरणीय khursheed khairadi जी मैं समय मिलते ही इसे सुधारने का प्रयत्न करूंगा! बहुत जल्दबाजी में लिख कर पोस्ट कर दी थी माफी चाहता हुँ अभी गजल को समय की जरूरत थी ! आदरणीय मुझे उरूज,जरब,आदि की तनिक भी नाॉलिज नहीं ! क्रपया अगर आप मेरी मदद करों तो बडी मेहरबानी होगी! नमन!
Comment by khursheed khairadi on December 29, 2014 at 3:34pm

आदरणीय राहुल डांगी साहब ,काफ़ी सारे भाव समेटे हुये काफ़ी तवील ग़ज़ल है |बहुत बहुत बधाई आपको |लंबी बह्र और लंबी ग़ज़ल होने से कहीं कहीं भावों का कसाव बिखर रहा है |सदर और इब्तिदा में बार बार कि का प्रयोग अखरता है |अरूज़ो-ज़रब में में आगे एक हर्फ़ बढ़ाया जा सकता है लेकिन हश्वैन में खटकता है ,लय  बाधित होती है|देखें '  मेरा तो काम पढ़ाना था!!     थे और मैं एक था पांडव|

      वैसे हर शेर हज़ार रंग बिखेरता हुआ है |ग़ज़ल बहुत पसंद आई |ढेरों दाद कबूल फरमावें |सादर 

Comment by Rahul Dangi Panchal on December 29, 2014 at 2:15pm
आदरणीय Er. Ganesh Jee "Bagi" जी बहुत बहुत धन्यवाद! आपके सुझाव पर ध्यान देता हुँ!सादर नमन!

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 29, 2014 at 2:04pm

मतला में यदि उला को सानी और सानी को उला कर दिया जाय तो कहन और निखर कर आएगा, 

//मैनें तो लाख कोशिश की थी सब कुछ टाल देने की ने की दोस्त!//

//जिसे मेरा सहारा था उसे जिसे मुझको बचाना था!!//

//दुशासन थे शकूनी थे, थे दुर्योधन मेरे दुश्मन!//
बार बार थे , मिसरा को कमजोर कर रहा है, इसको देखिये जरा .
कुल मिलाकर यह कहना है कि हर शेर को तनिक कसने की जरुरत है, इस प्रयास पर बहुत बहुत बधाई .

Comment by Rahul Dangi Panchal on December 29, 2014 at 11:30am
आदरणीय श्याम नारायन जी शुक्रिया!
Comment by Shyam Narain Verma on December 29, 2014 at 10:30am

" बहुत खूब ! इस सुंदर गजल हेतु बधाई स्वीकारें । "

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