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ग़ज़ल - अदावत भी हमी से, हमदमी भी ( गिरिराज भन्डारी )

1222     1222      122  ---  

कभी महसूस कर मेरी कमी भी

तेरी आँखों में हो थोड़ी नमी भी

 

नदी की धार सी पीड़ा बही, पर

किनारों के दिलों में क्या जमी भी ?

 

खुशी तो है उजालों की, मगर क्यों

कहीं बाक़ी दिखी है बरहमी* भी     ( खिन्नता )

 

उड़ाने आसमानी भी रखो पर

तुम्हे महसूस होती हो ज़मी भी

 

ये रिश्ता किस तरह का है बताओ ?

अदावत* भी हमी से, हमदमी भी       ( दुश्मनी )

 

उफ़क पे देख लाली है खुशी पर

हवायें लग रहीं हैं कुछ थमी भी  

 

मुझे अफ़सोस है सारे इरादे 

अभी कमज़ोर हैं, कुछ मौसमी भी

******************************** 

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

 

Views: 870

Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 24, 2014 at 9:12am

आदरणीय सौरभ भाई , आपने सही कहा है , ज़मीं काफिया इस ग़ज़ल के हिसाब से गलत ही है ॥ आपका आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 24, 2014 at 9:09am

आदरणीय राम अवध भाई , बहुत बड़ी ग़लती की तरफ धयान दिलाने के लिये आपका दिल से आभारी हूँ , अन्यथा ले ने का तो कोई सवाल ही पैदा नही होता , यही तो सीखना- सिखाना है । आपका बार बार आभारी हूँ । निः संकोच आगे भी मेरी ग़लतियाँ बतायें ॥

वैसे तो इस शे र को ग़ज़ल से निकलाना ही पड़ेगा फिर भी पहले सुधारने की कोशिश करूँगा ।

ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका बहुत शुक्रिया ॥


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 23, 2014 at 11:24pm

आदरणीय राम अवध विश्वकर्माजी का ज़मीं को लेकर अपनी बातें कहना एकदम सही है. यह आश्चर्य ही है कि इस ओर विद्वान ग़ज़लकार और पाठकों का ध्यान नहीं गया.

सादर

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on July 23, 2014 at 9:46pm

उम्दा ग़ज़ल के लिए बधाई परंतु आदरणीय गिरराज जी निम्न शेर में जो शब्द जमी का इस्तेमाल काफिया के लिए किया गया गया है वह
मेरी जानकारी के अनुसार ज़मीन का लघु रूप ज़मीं होता है न की जमी मै तो उर्दू नही जानता ये तो उर्दू भाषा के जानकार ही बता सकते हैं की काफिया जमी होगा या ज़मीं अगर ज़मीं है तो शेर को दुरुस्त करना होगा और अगर जमी है तो मुझे गुस्ताख़ी के लिए माफ़ करना. कृपया अन्यथा न लेना
उड़ानें आसमानी भी रखो पर
तुम्हे महसूस होती हो जमी भी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 23, 2014 at 1:32pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई , गज़ल की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिये आपका आभारी हूँ ॥

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 23, 2014 at 10:54am

कभी महसूस कर मेरी कमी भी
तेरी आँखों में हो थोड़ी नमी भी ..... बहुत ही दमदार मतला
उड़ाने आसमानी भी रखो पर
तुम्हे महसूस होती हो ज़मी भी ...... क्या कहने अच्छी सीख देता शेर
ये रिश्ता किस तरह का है बताओ घ्
अदावत’ भी हमी सेए हमदमी भी       ..... बहुत ही मार्मिक शेर
मुझे अफ़सोस है सारे इरादे
अभी कमज़ोर हैंए कुछ मौसमी भी .......यह भी कम नहीं

आ0 भाई गिरिराज जी , सीधे सरल शब्दों में कही गयी इस बेहतरीन गजल के लिए बहुत बहुत हार्दिक बधाई  ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 22, 2014 at 8:42pm

आदरणीय सौरभ भाई , आपने गज़ल पसंद की तो मानो मेरी  कोशिश सफल हो गई , उत्साहवर्धन के लिये आपका आभारी हूँ ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 22, 2014 at 8:40pm

आदरणीया राजेश जी , हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 22, 2014 at 8:38pm

आदरणीय जी एस मिश्रा भाई , गज़ल पर आपकी उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया के लिये आपका आभारी हूँ ॥


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 22, 2014 at 3:01pm

जानदार मतला से शुरू हुई ग़ज़ल मानो बहती हुई चली जाती है. वाह-वाह !

शुभ-शुभ

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