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कहाँ होती मुहब्बत और कैसी कुर्बतें होतीं (ग़ज़ल 'राज')

1222   1222   1222   1222

जुबाँ से विष उगलते और मन में नफरतें होतीं

 न तू होता अगर दिल  में न तेरी रहमतें होतीं

 

नहीं जीवन बनाता तू धड़कता फिर कहाँ से दिल

न कोई ख़्वाब ही पलते  न कोई हसरतें होतीं  

 

जो तेरे  हाथ शानों पर नहीं होते अगर मेरे   

कहाँ से  होंसला होता कहाँ  ये हिम्मतें होतीं  

 

बिना मतलब यहाँ तो पेड़ से पत्ता नहीं हिलता

ज़माना साथ क्या देता बड़ी ही जिल्लतें होतीं  

 

न तुझ में  आस्था होती न तेरा डर अगर होता

कहाँ होती मुहब्बत और कैसी कुर्बतें   होतीं  

 

बड़ा अच्छा किया कद अर्श को ऊँचा दिया तूने   

नहीं तो बंट चुका होता लगा दी  कीमतें होतीं 

 

तेरी पाकीजगी, कमसिन ज़िया को  लूट लेते सब

सितारों चाँद सूरज की दरकती अस्मतें होतीं   

 

कज़ा की डोर हाथों में नहीं लेता अगर मालिक  

अमर होती कहर ढ़ाती विषैली ताकतें होतीं

(मौलिक एवं अप्रकाशित ) 

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Comment

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 30, 2014 at 1:07pm

महनीय

बहुत बेहतरीन गजल हुई है  i हर शेर मुकम्मिल है i  आपकी  कलम को दाद देता हूँ i


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Comment by rajesh kumari on June 30, 2014 at 12:36pm

जितेन्द्र भैय्या ग़ज़ल पर पहले तो सर्वप्रथम टिपण्णी देने का आभार लो ,फिर आपकी उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय तल से बहुत- बहुत आभार  सस्नेह शुभकामनायें 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 30, 2014 at 12:17pm

बिना मतलब यहाँ तो पेड़ से पत्ता नहीं हिलता

ज़माना साथ क्या देता बड़ी ही जिल्लतें होतीं..............  सच! बिना मतलब के कुछ भी नही होता है

बड़ा अच्छा किया कद अर्श को ऊँचा दिया तूने   

नहीं तो बंट चुका होता लगा दी  कीमतें होतीं...........बहुत सुंदर

आपकी इस बेहतरीन गजल पर आपको हार्दिक बधाई आदरणीया राजेश दीदी

 

 

 

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