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ग़ज़ल ( गिरिरज भंडारी ) --वही चाहतें हैं डरी- मरी

11212      11212       11212     11212 

कई बाग़ सूने हुये यहाँ , कई फूलों में हैं उदासियाँ

कई बेलों को यही फिक्र है , कि कहाँ गईं मेरी तितलियाँ

कभी दूरियाँ बनी कुर्बतें, कभी कुरबतें बनी दूरियाँ

ये दिलों के खेलों ने दी बहुत , हैं अजब गज़ब सी निशानियाँ

कभी आप याद न आ सके, कभी हम ही याद न कर सके

रहे शौक़ में हैं लिखे मिले , कई गम ज़दा सी रुबाइयाँ  

वो हक़ीक़तें बड़ी तल्ख़ थीं, चुभीं खार बनके इधर उधर

सुनो वो चुभन ही सुना रही ,है हक़ीक़तों की कहानियाँ

वही हालतें हैं गरीब की , वही चाहतें हैं डरी- मरी

कहीं तिफ्ल भूख से मर गया , कहीं बिक रहीं हैं जवानियाँ

मेरा ज़ख्म पीठ का भर गया , मेरा ताप सर से उतर गया

नहीं भर रहीं हैं खुदी हुई,  वो जो दरमियान थी खाइयाँ 

*******************************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 16, 2014 at 9:26pm

आदरणीया महिमा श्री जी , हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥

Comment by कल्पना रामानी on June 16, 2014 at 7:48pm

बहुत उम्दा गज़ल कही है आपने आदरणीय गिरिराज जी, हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिये

निम्नलिखित  पंक्तियों पर फिर से गौर करके देखिये-

कई बाग़ सूने हुये यहाँ , कई फूल में हैं उदासियाँ...'कई फूलों में' होना चाहिए शायद यहाँ

 ये दिलों के खेल ने ही दिये, हैं अजब गज़ब सी निशानियाँ...दिये हैं....निशानियाँ  (स्त्रीलिंग के साथ...दिये का प्रयोग)

 

रहे शौक़ ने है दिये बहुत, कई गम ज़दा सी रुबाइयाँ...दिये बहुत...रूबाइयाँ (स्त्रीलिंग के साथ ...'दिये बहुत का प्रयोग)

Comment by gumnaam pithoragarhi on June 16, 2014 at 6:06pm

सर बहुत बढ़िया ग़ज़ल बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by नादिर ख़ान on June 16, 2014 at 5:44pm

वही हालतें हैं गरीब की , वही चाहतें हैं डरी- मरी

कहीं तिफ्ल भूख से मर गया , कहीं बिक रहीं हैं जवानियाँ

 

मेरा ज़ख्म पीठ का भर गया , मेरा ताप सर से उतर गया

नहीं भर रहीं हैं खुदी हुई,  वो जो दरमियान थी खाइयाँ ..वाह वाह वाह अदरणीय गिरिराज जी बहुत उम्दा कहा .....

Comment by mrs manjari pandey on June 15, 2014 at 9:25pm
आदरणीय गिरिराज जी बहुत ही भावपूर्ण सुन्दर ग़ज़ल के लिए बधाई
Comment by MAHIMA SHREE on June 15, 2014 at 4:24pm

मेरा ज़ख्म पीठ का भर गया , मेरा ताप सर से उतर गया

नहीं भर रहीं हैं खुदी हुई,  वो जो दरमियान थी खाइयाँ.... वाह बेहद उम्दा ग़ज़ल कही है आदरणीय गिरिराज जी हार्दिक बधाई प्रेषित है सादर


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Comment by गिरिराज भंडारी on June 14, 2014 at 1:50pm

आदरणीय शिज्जू भाई , आपकी सराहना हमेशा मेरा उत्साह वर्धन करते रही है , आपका बहुत शुक्रिया ॥


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Comment by गिरिराज भंडारी on June 14, 2014 at 1:49pm

आदरणीय जितेन्द्र भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ॥


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Comment by गिरिराज भंडारी on June 14, 2014 at 1:48pm

आदरणीय बड़े  भाई , सराहना के लिये आपका आभार । कठिन सब्दों के अर्थ अब से देने का प्रयास करूंगा ॥


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Comment by शिज्जु "शकूर" on June 14, 2014 at 7:28am

बेहतरीन आदरणीय गिरिराज सर बहुत बढ़िया ग़ज़ल बहुत बहुत बधाई आपको

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