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मजदूर [कुण्डलिया]

मजदूरी कर पालता अपना वो परिवार
रोज दिहाड़ी वो करे देखे ना दिन वार |
देखे ना दिन वार नहीं देखे बीमारी
कैसे पाले पेट वार है इक इक भारी
मंहगाई अपार ,यही उसकी मज़बूरी
गेंहू चावल दाल मिले जो हो मजदूरी ||

उसका जीवन है बना दर्द भूख औ प्यास
मजदूरी किस्मत बनी जब तक तन में श्वास |
जब तक तन में श्वास पड़ेगा उसको सहना
तसला धूल कुदाल पसीना उसका गहना
सरिता पूछे आज कहो कसूर है किसका
भूखा है मजदूर पेट भरे कौन उसका ||

.....................................................

,,,,,,,,,,,मौलिक व अप्रकाशित.,,,,,,,,,,,,,,

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Comment

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Comment by Sarita Bhatia on May 21, 2014 at 10:14am

कुंती दीदी शुक्रिया स्नेह बनाये रखें 

Comment by Sarita Bhatia on May 21, 2014 at 10:13am

आदरणीय गोपाल सर मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार 

Comment by Sarita Bhatia on May 21, 2014 at 10:13am

शुक्रिया श्याम नारायण जी 


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Comment by शिज्जु "शकूर" on May 20, 2014 at 9:25pm

बहुत बढ़िया आदरणीय सरिता जी आपकी दोनों कुण्डलिया बेहतरीन बन पड़ी है

Comment by coontee mukerji on May 20, 2014 at 8:14pm

बहुत मार्मिक रचना है...सरिता जी...हार्दिक बधाई.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 20, 2014 at 6:00pm

मंहगाई  अपार में लय टूटती है  i कारण, मं में उच्चारण में बिंदु पर  जोर नहीं पड़ता  i यह एकही मात्रा  मानी  जायेगी  i

मंहगाई की मार यही उसकी मजबूरी कर दे तो प्रवाह आ जायेगा  i  बहुत अच्छा प्रयास है i

Comment by Shyam Narain Verma on May 20, 2014 at 2:28pm
बहुत सुंदर भावपूर्ण कुण्डलिया है, आपको हार्दिक बधाई।

कृपया ध्यान दे...

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