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2122       2122       212 

फाइलातुन   फाइलातुन   फाइलुन

(बहरे रमल मुसद्दस महजूफ)

वृत्ति जग की क्लिष्ट सी होने लगी

सोच सारी लिजलिजी होने लगी

भीड़ है पर सब अकेले दिख रहे 
भावनाओं में कमी होने लगी

चाहना में बजबजाती देह भर 
व्यंजना यूँ प्रेम की होने लगी

धर्म के जब मायने बदले गए 
नीति सारी आसुरी होने लगी

सूखती संवेदना घर-घर दिखे 
चेतना भी ठूँठ सी होने लगी

 

ढूँढ अब लाएँ कहाँ से हम किरण

रात सारी मावसी होने लगी

      -  बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश नीरज on March 2, 2014 at 7:59am

आदरणीय जितेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 2, 2014 at 2:21am

भीड़ है पर सब अकेले दिख रहे 
भावनाओं में कमी होने लगी........आज पर बहुत संवेदन शील

सूखती संवेदना घर-घर दिखे 
चेतना भी ठूँठ सी होने लगी...........एक सच्चाई

बहुत सुंदर, मन को छू जाती गजल हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय बृजेश जी

 

Comment by बृजेश नीरज on March 1, 2014 at 11:31pm

आदरणीया कल्पना दीदी, आपका हार्दिक आभार!

आपका आशीष मिला, मेरे लिए सौभाग्य की बात है!

सादर!

Comment by बृजेश नीरज on March 1, 2014 at 11:30pm

आदरणीय प्रदीप जी, आपका हार्दिक आभार!

आपकी कविताई अच्छी रही! :)))))))))

सादर!

Comment by बृजेश नीरज on March 1, 2014 at 11:29pm

आदरणीय नीरज जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on March 1, 2014 at 11:28pm

आदरणीया कल्पना मिश्रा जी आपका बहुत-बहुत आभार!

Comment by बृजेश नीरज on March 1, 2014 at 11:27pm

आदरणीया सरिता जी आपका हार्दिक आभार! आपको शब्द-चयन रुचा, मेरा प्रयास एक कदम आगे बढ़ा!

Comment by बृजेश नीरज on March 1, 2014 at 11:26pm

आदरणीया अन्नपूर्णा जी आपका हार्दिक आभार!

मैं इस विधा को समझने के लिए बहुत दिनों से प्रयासरत हूँ लेकिन अभी तक समझ नहीं सका.

Comment by कल्पना रामानी on March 1, 2014 at 9:15pm

सूखती संवेदना घर-घर दिखे 
चेतना भी ठूँठ सी होने लगी

 

ढूँढ अब लाएँ कहाँ से हम किरण

रात सारी मावसी होने लगी...

.वाह!! बहुत सुंदर! संवेदनाओं से भरा हुआ हर शे'र मन को छू गया। बहुत बहुत बधाई आपको बृजेश जी/सादर

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 1, 2014 at 9:00pm

वृत्ति जग की क्लिष्ट सी होने लगी

सोच सारी लिजलिजी होने लगी

भीड़ है पर सब अकेले दिख रहे 
भावनाओं में कमी होने लगी

आदरणीय ब्रजेश जी 

सादर 

विधा की गंगा बह रही 

भाव भी है कह रही 

बधाई 

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