ओस की बूँद सी आँखों में सिमट आयी है...
फिर भी क्यों लब पे हंसी छाई है..
सांझ का धुंधलका मेरे आसपास सिमटा है..
जैसे मेरे ज़ेहन की परछाई है..
क्यों मिले थे तुम ? क्यों पास हम आये थे?
क्यों अनजान बन के ख्वाब सजाये थे?
एक पत्थर से वो ख़्वाबों का घर बिखरा है..
जो हम अनजाने थे तो पहचाने से क्यों थे ?
खोयी नींदें अब फिर से लौटी हैं इन आँखों में..
बहुत ढूँढा कोई 'अपना' मैंने लाखों में..
'अपने' मुझे बस एक 'चीज' समझ लेते हैं ..
बेगाने रहें तो बस है इन 'अपने लाखों में '
ज़िन्दगी..बस ये ज़िन्दगी है मेरी ,अच्छी या बुरी..
कडवी ही सही ,पर है ये एकदम खरी..
जैसे जियूंगी बस वैसी ही बन जाएगी..
अब मज़बूत हूँ मैं ,नहीं सहमी या डरी..
क्योंकि.....
खुद को सौंपा अब मैंने 'उनको '
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