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मुख्यधारा (लघुकथा)

एक रात अचानक पुलिस वाले उसे उग्रवादी बता कर घर से उठा कर ले गए. क्या क्या ज़ुल्म नहीं किये गए थे उस पर. वह चीख चीख कर खुद को बेनुगाह बताता रहा लेकिन सब कुछ सुनते हुए भी सरकारी जल्लाद बहरे बने रहे. यातनाएं सहते सहते तक़रीबन छह महीने बीत गए थे. तभी एक दिन सरकार ने अपनी नई नीति के अनुसार उसे रिहा कर दिया ताकि वह भी राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल हो सके. उसके वापिस लौटने से घर में ख़ुशी का वातावरण था, लेकिन वह जड़वत बैठा न जाने कहाँ खोया रहता. वृद्ध पिता ने एक दिन उसके कंधे पर हाथ रखकर पूछा:

"बहुत दिन हो गए तुम्हें वापिस आए हुए, कुछ काम काज का सोचा?"
"नौकरी तो अब मिलने से रही..... तो ……"
"बेटा, अगर कहो तो लोन लेकर तुम्हें एक टैक्सी दिलवा दें?"      
"टैक्सी नहीं, मुझे एक बन्दूक दिलवा दो बापू." 
अंदर की आग अब उसकी आँखों में उतर आई थी। 
.
(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vandana on December 19, 2013 at 6:32am

आदरणीय प्रभाकर सर बहुत बढ़िया लघुकथा एकदम सीधा प्रहार करती हुई .....बहुत 2 बधाई आदरणीय 

Comment by वेदिका on December 18, 2013 at 8:32pm

एक इंसान के अंदर की इंसानियत के मर जाने का दायित्व अब कौन लेने को तैयार हो!

बधाई आदरणीय योगराज जी!

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 18, 2013 at 7:57pm

आदरणीय योगराज जी

एकं कांटा  सा चुभ गया इसे पढ़कर  और साथ ही याद  आया यह दोहा -

निर्बल को न सताइए ; जाकी  मोटी हाय i

बिना श्वास की खाल सो, लौह भस्म होइ जाय ii

मुख्यधारा में  छिपा व्यंग्य i उग्रवाद का उद्भव और विकास  i  पूरी समग्रता स्वयं में समेटे  इस कथा के लिए आपको क्या उपहार दे i अनिवर्चनीय---- अनिवर्चनीय ---- अनिवर्चनीय  i  

Comment by Shubhranshu Pandey on December 18, 2013 at 7:52pm

आदरणीय योगराज जी, 

बहुत सुन्दर कथा. 

बचपन में एक कविता पढ़ी थी, ...मां मुझको बन्दूक दिला दे, मैं भी लड़ने जाउँगा..... उस बन्दूक इच्छा और इस बन्दूक की याचना के अन्तर को देर तक गुनता रहा. 

सादर.

Comment by Maheshwari Kaneri on December 18, 2013 at 7:10pm

बहुत बढिया..

Comment by Shyam Narain Verma on December 18, 2013 at 5:54pm
सुन्दर लघु कथा के लिये बधाई ।
Comment by Sanjay Mishra 'Habib' on December 18, 2013 at 5:42pm

अनेक ज्वलंत प्रश्न खड़ी करती है आपकी लघु कहानी आदरणीय योगराज भईया...

सादर बधाई स्वीकारें...

Comment by राजेश 'मृदु' on December 18, 2013 at 5:05pm

आपकी इस लघुकथा ने एक निर्दोष की वेदना और सीधे-साधे मनुष्‍य से जंगी बनने के पूरे प्रोसेस के लिए उत्‍तरदायी तंत्र पर करारा चोट किया है, बहुत ही बढि़या है लघुकथा आदरणीय, सादर

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