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मेघ भी है, आस भी है और आकुल प्यास भी है,

पर बुझा दे जो हृदय की  आग वह पानी कहाँ है ?

 

स्वाति जल की  कामना में, 'पी कहाँ?' का मंत्र पढ़कर 

बादलो  को जो रुला दे, मीत !  वह मानी कहाँ है ?

 

क्षत-विक्षत  है  उर धरा का, रस रसातल में समाया,

सत्व सारा जो लुटा दे,  अभ्र वह  दानी कहाँ है ?

 

पार नभ के लोक में, जो बादलो पर राज करता,

छल-पराक्रम का धनी वह इंद्र अभिमानी कहाँ है ?

 

मौन  पादप, वृक्ष नीरव, वायु चंचल,  प्राण व्याकुल

इन्द्रधनुषी इस रसा का रंग वह धानी कहाँ है ? 

 

सृष्टि  भीगे, रूप सरसे, जिस सुहृद से नेह बरसे,  

उस पिघलते मेह जैसे वीर का सानी कहाँ है ?  

 

कुछ  सरस है,  कुछ विरस भी, तृप्त कोई, दृप्त कोई 

नियति जल कि थाह लेता जीव अज्ञानी कहाँ है  ?

 

 

(मौलिक व अप्रकाशित )

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 12, 2013 at 6:19pm

आदरणीय गोपाल भाई , अदभुत गीत रचना !!!! इस गीत की तारीफ कर सकूँ इतनी योग्यता मुझ मे नही है !!!!!

                               !!!! मौन बधाई स्वीकार करें !!!!!!

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 12, 2013 at 6:12pm

संदीप कुमार पटेल जी ओर   शिज्जू शकूर जी  आपकी हौसला अफजाई के लिए शत शत धन्यवाद

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on November 12, 2013 at 2:17pm

अहा क्या ही सुन्दर शब्द चयन वाह वाह वाह

बहुत सुन्दर

इस लाजवाब रचना पर ह्रदय से बधाई स्वीकारिये आदरणीय

जय हो


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 12, 2013 at 1:13pm

वाह आदरणीय डॉ  श्रीवास्तव  सर मुझे तारीफ के शब्द नही मिल रहे लाजवाब रचना, अब तो आपकी हर रचना की अधीरता से प्रतीक्षा रहेगी, इस बेहतरीन रचना के लिये बधाई स्वीकार करें

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