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रूपसी

सुंदर, सकल काया, से सभी के ह्रदय में,

अनुकूल जोश भर, जाती है वो रूपसी,

नयन उचारें जब, मधु से भी मीठे बोल,

तब मदहोश कर, जाती है वो रूपसी,

मन है पवित्र ऐसे, गंगा का हो जल जैसे,

जितने भी दोष, तर, जाती है वो रूपसी,

लता सी कमरिया को, जब लचकाती चले,

सबको बेहोश कर, जाती है वो रूपसी।

-------------------------------- सुशील जोशी

"मौलिक अप्रकाशित"

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on October 3, 2013 at 8:50am

सुंदर बखान हुआ, रूप मूर्तिमान हुआ

घोल शब्द-शब्द मधु, जाती है वो रूपसी.....

आदरणीय सुशील जी, मनमोहक कवित्त के लिये बधाइयाँ.....................


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 3, 2013 at 8:01am

आदरणीय सुशील भाई , प्रेयसी की सुन्दरता का सुन्दर वर्णन किया है आपने , शिल्प का मुझे ज्ञान नही है !! सुन्दर रचना के लिये आभार !!

Comment by Sushil.Joshi on October 3, 2013 at 5:12am

उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीय अखिलेश जी.... वैसे आपको बता दूँ कि मेरा एवं ओ बी ओ का साथ बहुत पुराना है.... ओ बी ओ के प्रारंभ के दिनों से ही मैं इससे जुड़ा हुआ हूँ..... केवल समय की कुछ विवशताओं के कारण यहाँ अपनी उपस्थिति बहुत ही कम दर्ज़ करा पाता हूँ.... किंतु अब मैंने निश्चय किया है कि नियमित रूप से यहाँ आकर आप जैसे कला के धनी व्यक्तित्वों से कुछ सीख सकूँ....।

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on October 2, 2013 at 11:03pm

आपको पहली बार पढ़ा , रूपसी की सुंदरता में सुंदर रचना की बधाई सुशील जोशी भाई ।                                                     अनुकूल जोश भर, जाती है वो रूपसी,// पवित्र प्रेम का भाव जगा जाती है वो रूपसी,

गंगा का हो जल जैसे//  गंगा का  जल हो जैसे, ॥                                                                                                       जितने भी दोष, तर, जाती है वो रूपसी, // तन-मन के सारे  दोष, तर, जाती है वो रूपसी.............  सादर ।

तन-मन सारे के दोष, तर, जाती है वो रूपसी

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