{सभी आदरणीय सजृनकर्ताओं को प्रणाम, एक माह तक भारतीय रेल सिगनल इंजीनियरी और दूरसंचार संस्थान , सिकन्दराबाद - आंध्र प्रदेश में नवीन तकनीकी ज्ञान अर्जन करने के कारण ओ बी ओ परिवार से दुर रहना पड़ा, इसके लिए क्षमा चाहता हूँ । पुनः प्रथम रचना के रूप में यह आलेख प्रस्तुत है}
हमारे जीवनयापन की आवश्यकताओं के बाद सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है हमारी अभिव्यक्ति अर्थात हमारी बोलने की जरूरत, जिसके बिना इंसान का जीवन कष्टमय हो जाता है । यदि किसी को कठोर सजा देनी होती है तो उसे चुप रहने के लिए कहा जाता है।
जैसा कि हम जानते हैं कि प्रत्येक आयु वर्ग के इंसानों में ज्यादातर अलग अलग विषयों पर बातचीत की जाती है। छात्रों में अपने स्कूल, खेल आदि की बात की जाती है तो घरेलू महिलाओं में ज्यादातर घर परिवार या टी वी सीरियल तथा पास पड़ौस का विषय मुख्य होता है। इसी प्रकार कामकाजी महिलाओं, पुरूषों तथा बुजुर्गो के बातचीत के विषय अलग अलग होते हैं। ऐसा होेना स्वाभाविक भी है क्योंकि हम सभी का मानसिक ज्ञान , कार्य स्थली, संगी साथी तथा हमारे आस पड़ौस का वातावरण भिन्न भिन्न होता है।
लेकिन क्या आपने ध्यान दिया है कि एक ऐसा सामान्य विषय है जिसका प्रयोग लगभग सभी आयुवर्ग और प्रोफेशन के लोगों द्वारा कभी कभी अपनी बातचीत में किया जाता है ! जी हाँ आप सही समझ रहे हैं हम यहां आलोचना के अनेक रूपों यथा व्याख्यात्मक ,सैद्धान्तिक ,निर्णयात्मक ,प्रभाविक आदि में से एक व्यवहारिक रूप की ही चर्चा कर रहे हैं।
आलोचना करना या परनिन्दा करना एक ऐसा विषय है जिसकी अपनी कोई सीमा या परिभाषा नही होती वो प्रत्येक इंसान और स्थिती में बदल जाता है पर सदा मौजुद रहता है । किसी के बारे में विश्लेषण के लिये समालोचना की जाती है तब तक तो अच्छा है पर जब यह परनिन्दा का रूप ले लेती है तो बुराई की श्रैणी में आ जाती है। आलोचना के इस रूप को जाने अनजाने हम सभी अपनी वार्तालाप में स्थान दे ही देते हैं।
दरअसल आलोचना का अर्थ है किसी भी इंसान या वस्तु के सभी अच्छे बुरे गुण एवं दोषों को अच्छी तरह परख कर उसकी विवेचना या समीक्षा करना। इस विधा का उपयोग करने से जिसकी आलोचना की जाती है उसे अपनी कला में और सुधार करने की प्रेरणा मिलती है किन्तु यह बीते जमाने की बात हो गई प्रतीत होती है आजकल की आधुनिक आलोचना तो बस व्यक्तिगत निन्दा का ही रूप धारण कर चुकि है एवं पहले की भाँति अब किसी की आलोचना करना प्रोत्साहित करने की बजाय उसके दिल को ठेस पहुँचाने का कार्य करता है। इतना ही नही आज धन का उपयोग कर कुछ धनाढ़य अन्य साहित्यकारों की रचनाओं को अपनी रचना घोषित करवा कर अपने पक्ष में प्रशंसा वाली व्याख्या और विश्लेषण करवाने में भी कामयाब हो जाते हैं।
महिलाओं के बारे में यह किवंदती है कि वे निन्दा अधिक करती हैं लेकिन सच में ऐसा नही है। पुरूषों द्वारा भी समान रूप से निन्दा की जाती है लेकिन उनकी निन्दा दिखाई नही दे पाती क्योंकि पुरूष कम बोलते हैं और महिलाएं अधिक बोलती हैं। यदि दोनो के बोलने के अनुपात में निंदा का आकलन किया जाये तो प्रतिशत में रेश्यो लगभग समान ही आयेगा।
एक कारण और है निन्दा सदैव कुछ औपचारिक बातों को करने के बाद वार्ता को आगे बढ़ाने के रूप में प्रारम्भ होती है चूंकि पुरूष ज्यादा बातें नही करके मात्र औपचारिक बातें ही करते हैं अतः निन्दा प्रारम्भ होने से पूर्व ही उनकी बात खत्म हो जाती है इससे यह भ्रम बनता है कि पुरूष निन्दा नही करते । यदि पुरूषों को लम्बी बातें करनी पड़ती है तो वहां भी निन्दा आ ही जाती है।
इंसान निन्दा क्यूं करता है यदि हम इसका विश्लेषण करने की कोशिश करें तो अनेकों तथ्य सामने आते है जैसेः
प्रथम- वार्ता को लगातार आगे बढ़ाने के लिए कोई ना काई विषय चाहिए होता है और वार्ता करने वाले दो व्यक्ति जिस तीसरे को जानते हैं उसके बारे में बात करना काफी आसान होता है।
द्वितीय- व्यवसाय या कार्य क्षेत्र में यदि कोई लगनपूर्वक कार्य करता है तो अन्यों की नजर में उसकी पैठ विकसित होने लगती है क्योंकि कार्य सभी को प्यारा होता है अतः उसके साथियों द्वारा उसकी निन्दा प्रारम्भ हो जाती है।
तृतीय- इंसानी प्रवृति है कि कोई आपका घरेलू या जानकार सदस्य आपसे ज्यादा उन्नति कर रहा है तो उससे ईर्ष्या भाव पैदा होने लगता है अब चूंकि उसके सामने उसकी निन्दा करके उससे सम्बन्ध खराब नही करना चाहते हैं अतः उसके पीछे से निन्दा करके मन का असंतोष निकाला जाता है।
चतुर्थ- आज के जमाने में इंसानी हैसियत मात्र पैसे के दम पर आँकी जाती है जो जितना धनाढ़य उसकी उतनी ही इज्जत और हैसियत समझी जाती है एवं उसके नजदीक के लोगो के लिये उसकी निन्दा अपनी हैसियत नीचे ना दिखें इसलिए कि जाती है।
धनाढ़य वर्ग द्वारा गरीब की निन्दा उसकी हँसी उड़ाने के लिए की जाती है। इसी प्रकार सभी की चहेती घरेलू महिला की अन्य बराबर वाली महिलाओं द्वारा निन्दा किया जाना भी आम रूप से देखा जाता है। और भी अनेक कारण आपकी नजर में होंगे लेकिन मुख्य बात ये है कि क्या हमें अपनी इस बुरी आदत पर लगाम लगाने की पहल नही करनी चाहिए ? जब भी हमें आलोचना करने का मौका मिले जरूर करें लेकिन उस आलोचना में सामाजिक स्थिति, वातावरण, आलोचित होने वाला साहित्य या व्यक्ति तथा परिस्थितियों को देखते हुए अपनी बुद्धि का सही रूप से उपयोग करते हुए यह ध्यान रखें कि इस आलोचना का उस पर सकारात्मक प्रभाव पड़े। यदि ऐसा हो सका तो इन पंक्तियों को लिखने का उद्देश्य पूर्ण व सार्थक हो पायेगा।
डी पी माथुर
! मौलिक एवं अप्रकाशित !
Comment
आपका आपके लेख के साथ स्वागत है, आदरणीय.
विश्लेषण पर और समय दिया गया होता तो कई और विन्दु प्राप्त हुए होते.
यह उतना ही सही है कि आलोचना में सदा नकारात्मकता नहीं होती. बल्कि सकारात्मक आलोचना की सार्थकता को सभी स्वीकारते हैं.
सादर
आदरणीया महिमा श्री जी सादर नमस्कार,, आपने समय निकाल कर आलेख पर विस्तार से टिप्पणी की इसके लिए आपका आभार !
निन्दा , आलोचना... समालोचना .. विषय को लेकर की गयी . व्याख्या बहुत ही गंभीरता लिए हुए है ... सभी बिन्दुओ पे सहमती हैं ...
सच में हम तो स्वयं किसी की आलोचना के या निंदा के शिकार होते है तो तिलमिलाकर स्वयं भी उसी प्रकार दुसरे की आलोचना करने लगते है ... जो वास्तव में स्वयम की कमजोरी को प्रदर्शित करता है ... हमें इससे बचना चाहिए .. ओर स्वयं को मजबूत बनाना चाहिए ... ताकि कोई कुछ भी कहे .. प्रतिउत्तर में हम तटस्थ रहे ...सकारात्मक रहें ..
और बहुत पहले इसलिए कबीर दास जी भी कह गए ...
निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाए
बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाए
आदरणीय विजय जी आपकी बात सौ फीसदी सही है जब आलोचना समालोचना तक रहें तो ठीक है जब वो निन्दा का रूप ले लेती है तो अनुशासनहीनता ही कहा जायेगा, ऐसा ही मैं अपने आलेख के माध्यम से कहना चाह रहा हूँ , आपका सुझाव अच्छा है आपने टिप्पणी कि इसके लिए मैं आपका अत्यन्त आभारी हूँ ।
आदरणीय जितेन्द्र जी विषय आपको पसंद आया और आपने टिप्पणी की आपका दिल से आभार ।
बहुत ही सही विषय पर, बड़े गहन विचार व्यक्त किये हैं, आपने अपने आलेख में, सच! आलोचना करना इन्सान की एक प्रवत्ति बनी हुयी है, बहुत बहुत बधाई आदरणीय माथुर साहब
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