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दर्द क्या इक नया फिर कोई बो रहा ( गज़ल - गिरिराज भंडारी )

212    212    212     212 

.

छांव में धूप का क्यों गुमाँ हो रहा

दर्द क्या इक नया फिर कोई बो रहा

 

सड़ चुकी मान्यता सांस फिर ले रही

दिन चढ़े तक कोई शख़्स ज्यों सो रहा  

 

ज़ाहिरन बात ये कह रहा है करम

बढ़ गया पाप जब तो कोई धो रहा

 

हाल की शक्ल में फ़र्क़ कुछ तो रहे

कल गया बीत वो जो रहा सो रहा

 

पश्चिमी कुछ हवा सभ्यता खा रही

आदमी इसलिये आदमी खो रहा

 

तितलियाँ ख़ौफ़ से उड़ नही पा रहीं

वाक़िआ कुछ बुरा रोज़ ही हो रहा

 

रोशनी भी कहीं दिख रही है मगर

अब्र भी कुछ घना उस तरफ हो रहा

 

    मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by गिरिराज भंडारी on September 23, 2013 at 6:22pm

आदरणीय अनुराग भाई , आपकी सराहना बहुत उत्साह वर्धक है , आपका हार्दिक आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 23, 2013 at 6:21pm

आदरणीय  रविकर भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 23, 2013 at 6:20pm

आदरणीय शिज्जू भाई , आपसे गज़ल की सराहना पाके निश्चित उत्साह वर्धन हुआ !! आपका हार्दिक आभार !!

Comment by vijay nikore on September 23, 2013 at 6:13pm

//

छांव में धूप का क्यों गुमाँ हो रहा

दर्द क्या इक नया फिर कोई बो रहा//

सारी गज़ल के भाव अच्छे लगे, पर यह तो बहुत ही खूब है!

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by Abhinav Arun on September 23, 2013 at 6:07pm

तितलियाँ ख़ौफ़ से उड़ नही पा रहीं

वाक़िआ कुछ बुरा रोज़ ही हो रहा

                                            .....बहुत खूब आ . गिरिराज जी ग़ज़ल शानदार हुई है बधाई !!

Comment by डॉ. अनुराग सैनी on September 23, 2013 at 5:37pm

बहुत बधाई आपको , जो जिक्र छेड़ा है इस गज़ल में उसको कुछ अधुरा सा छोड़ दिया आपने थोडा सा और आगे बाधा देते तो दिल का कोई भी तार छेड़े बिना न रहते ! दिली मुबारकबाद आदरणीय !

Comment by रविकर on September 23, 2013 at 5:18pm

सुन्दर गजल-
आभार भाई गिरिराज जी-


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 23, 2013 at 5:15pm

बेहतरीन आदरणीय गिरिराज सर आपकी ग़ज़लगोई ने खूब रंग जमाया है वाह दिली दाद कुबूल करें

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