वन नन्दन था वय षोडश कंचन देह लिए चलती वह बाला
शुचि स्वर्ण समान लगे शुभ केश व चन्द्र प्रभा सम वर्ण निराला
नृप एक वहीं फिरता मृगया हित यौवन देख हुआ मतवाला
वह नेत्र मनोहर मादक थे मदमस्त हुआ न गया मधुशाला
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
गजब गजब -
बहुत बहुत बधाई आदरणीय डाक्टर साहब-
एक प्रयास मेरा भी-
जब रूपसि-रंगत नैन लखे तब रंग जमे मितवा मतवाला |
चढ़ जाय नशा उतरे न कभी अब भूल गया मनुवा मधुशाला |
मृगया करने वह जाय कहाँ मृगया खुद षोडश ने कर डाला |
नवनीत चखी चुपचाप सखी फिर छोड़ गई वह सुन्दर बाला ||
आ0 आशुतोष भाई जी, वाह! वाह! सुन्दर सवैया। ढेरो बधाईयां। सादर,
वह नेत्र मनोहर मादक थे मदमस्त हुआ न गया मधुशाला
वाह .. वाह!
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