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नव गीत --आ चल फिर बच्चे हो जायें ( गिरिराज भंडारी )

नव गीत

*******

आ चल फिर बच्चे हो जायें

खेलें कूदे मौज मनायें

बिन कारण ही,

रोयें गायें , हँसे  हँसायें,

आ चल फिर बच्चे हो जायें !

 

मेरी कमीज़ है गन्दी तो क्या

तू कुछ उजला उजला तो क्या

मिट्टी मे खेलें,

धूल उड़ायें ,

चल हम सब गन्दे हो जायें

आ चल फिर बच्चे हो जायें !!

 

मै दौड़ूं  तू पीछे आये

मुझे धकेले और गिराये

चोट लगे मुझको, मै रो दूँ

तू डर जाये ,

दौड़े दौड़े पास मे आये

मै उठ न पाउँ,

मुझे उठाये ,

घर पहुंचाये ,

मात- पिता की गाली खायें

आ चल फिर बच्चे हो जायें !!!

 

फिर दूजे दिन,

कल को भूलूँ ,

रस्ता देखूँ ,

कि तू आये , मुझे मनाये

मै मानूँ , फिर भागे दौड़ें

फिर मुझे गिराये ,

और उठा के घर पहुँचाये

आ चल फिर बच्चे हो जायें !!!!

मौलिक एवँ अ प्रकाशित

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Comment

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Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on September 6, 2013 at 8:24pm

गिरिराज भाई पढ़्कर उम्र 60 साल कम हो गई, बधाई।   दुबारा "फिर मुझे गिराये ,और उठा के घर पहुँचाये" कहना गीत का नम्बर कुछ कम कर देता है।

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 6, 2013 at 6:47pm

आ० गिरिराज भंडारी जी 

बच्चों के मन की निश्छलता को समेटी सुन्दर अभिव्यक्ति.. पर आदरणीय यह नवगीत नहीं.. क्योंकि नवगीत एक नव्यता आधुनिकता के साथ किसी कथ्य की संदेशपरक प्रस्तुति करता है.. साथ ही इस अभिव्यक्ति में गेयता भी काफी बाधित है और कहीं कहीं प्रवाह अटक रहा है. आदरणीय बृजेश जी के कहे पर मेरी भी सहमति हैं कि प्रत्येक बंद में मात्रिक विन्यास समान होना चाहिये.

आपने कहीं कोई बिम्ब भी प्रयुक्त नहीं किया है.. बिम्बयोजन नवगीत की खासियत होता है..

नवगीत के शिल्प पर आलेख आप देख ही चुके हैं, इसे तदनुरूप परिवर्तित करके बाल साहित्य समूह में अवश्य ही पोस्ट करें. 

सादर धन्यवाद 

शुभ कामनाएँ 

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 5, 2013 at 8:50pm

आदरणीय जितेन्द्र भाई जी , हौसला अफजाई के लिये आपका हार्दिक आभार !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 5, 2013 at 8:48pm

आदरणीय केवल भाई , रचना को आपकी स्वीकृत और सराहना से सच मे मेरा उत्साह वर्धन हुआ , बहुत आभार !!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 5, 2013 at 8:09pm

सच! बचपन तो बचपन होता है, सिर्फ खेलना , खिलखिलाना, जिद करना, रूठना,मनाना,और बहुत से सुंदर पल, 

 हमेशा खूबसूरती ली हुयी बचपन की अनमिट यादों पर बहुत सुंदर प्रस्तुति, बधाई स्वीकारें आदरणीय गिरिराज जी

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on September 5, 2013 at 7:42pm

आ0 भण्डारी भाई जी,   सादर प्रणाम!    वाह! बहुत खूब।  प्रथम दो बन्द तो लाजवाब - अप्रतिम।   इस सुन्दर गीत भावों के लिए आपको बहुत बहुत शुभकामनाओं  सहित हार्दिक बधाई।   सादर, 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 5, 2013 at 7:39pm

आदरणीय बसंत भाई , आपका बहुर आभार , नवगीत की सराहना के लिये !!

Comment by बसंत नेमा on September 5, 2013 at 3:04pm

एक मासूम सी रचना जिसे पढ कर अपना बचपन याद आ गया .....सुन्दर अति सुन्दर ...आ0 गिरिराज जी बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 5, 2013 at 2:54pm
बृजेश भाई , सराहना के लिये आभार , आपकी सलाह सर आंखो पर . पोस्ट मै अवश्य पढ के सीखने का प्रयास करूंगा !!
Comment by बृजेश नीरज on September 5, 2013 at 2:18pm

आदरणीय गिरिराज जी,
बहुत ही सुन्दर! आपने बचपन फिर से लौटा दिया। सशक्त अभिव्यक्ति।
इस विधा के बारे में यह कहना चाहूंगा कि जितने भी अंतरे हों, सबका शिल्प एक जैसा रखा करें।
भारतीय छंद विधान समूह में नवगीत पर दो पोस्ट हैं। कृपया उन्हें देख लें।
इस सशक्त अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई!
सादर!

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