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सुनो ऋतुराज! – ११

सुनो ऋतुराज! – ११


ये मान मनौव्वल, झूमा-झटकी
बरजोरी, करजोरी और मुँहजोरी
तभी तक, जब तक
इस वैभवशाली ह्रदय का
एकछत्र साम्राज्य तुम्हारे नाम है
जिस दिन यह रियासत हार जाओगे
विस्थापित होकर कहाँ जाओगे?
फिर हम कहाँ और तुम कहाँ
सुनो ऋतुराज
हर नगरी की हर चौखट पर
पी की बाट जोहती सुहागिने
मुझ जैसी अभागन नही होती
खोने को सुख चैन
पाने को बेअंत रिक्त रैन
सुख की अटारी और दुख की पिटारी
अब दोनो तुम्हारे नाम
कभी फुरसत में करना हिसाब
मेरे हिस्से क्या और तुम्हारे जिम्मे क्या

सुनो ऋतुराज!
प्रीत के प्रपंच मे
छल को जायज कहा जिसने
वह स्वयं के हाथों छला गया होगा
आनन्द तो तब आए
आंसूओं की बून्द गिरे
और घाव पर नमक की परत चढ जाए
इस नमक का स्वाद
निसन्देह उसने नही चखा होगा
सुहागन के सिन्दूर से उसकी कमीज
नहीं हुई होगी लाल

सुनो ऋतुराज
इस ब्याहता ने सिन्दूर से होली खेली है
कहीं भी जाओ
कभी भी आओ

एक बात याद रखना
अपनी कमीज

झक्क सफेद रखना। ...................... ग़ुल सारिका

(मौलिक और अप्रकाशित) 

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Comment

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Comment by vijay nikore on August 7, 2013 at 9:50am

आदरणीया गुल सारिका जी:

 

३ सप्ताह के लिए सफ़र पर था, अत: आपकी यह सुन्दर रचना अब पढ़ी।

बहुत ही भाव व्यंजित मनोहारी कविता लिखी है आपने । 

निम्नांकित पंक्तियाँ मन को बहुत भायीं....

 

आंसूओं की बून्द गिरे
और घाव पर नमक की परत चढ जाए
इस नमक का स्वाद
निसन्देह उसने नही चखा होगा
सुहागन के सिन्दूर से उसकी कमीज
नहीं हुई होगी लाल

आपको शत-शत बधाई।

विजय निकोर

Comment by MAHIMA SHREE on July 25, 2013 at 11:42pm

वाह !! एक साँस में पढ़ गयी .. बहुत -२ बधाई  आदरणीया .. गजब की प्रस्तुति //

Comment by Vinita Shukla on July 25, 2013 at 11:08pm

इस नमक का स्वाद
निसन्देह उसने नही चखा होगा
सुहागन के सिन्दूर से उसकी कमीज
नहीं हुई होगी लाल सुनो ऋतुराज
इस ब्याहता ने सिन्दूर से होली खेली है.....बहुत खूब, अद्भुत! हार्दिक बधाई.

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 25, 2013 at 10:43am

आंसूओं की बून्द गिरे 
और घाव पर नमक की परत चढ जाए 
इस नमक का स्वाद 
निसन्देह उसने नही चखा होगा 
सुहागन के सिन्दूर से उसकी कमीज 
नहीं हुई होगी लाल

सुनो ऋतुराज 
इस ब्याहता ने सिन्दूर से होली खेली है 
कहीं भी जाओ कभी भी आओ

एक बात याद रखना 
अपनी कमी झक्क सफेद रखना। ........बहुत सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई 

Comment by coontee mukerji on July 24, 2013 at 3:44pm

सुनो ऋतुराज
इस ब्याहता ने सिन्दूर से होली खेली है
कहीं भी जाओ
कभी भी आओ

एक बात याद रखना
अपनी कमीज

झक्क सफेद रखना।..................सुनो ऋतुराज.....यह दिलेरी मन को भा गयी.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 24, 2013 at 12:30pm

एक प्रेयसी या सुहागन का ऋतुराज.. और उससे जुड़े अन्तः के अनगिन भाव 

इस कशिश पर मन मुग्ध हो गया. प्रेम, गर्व, पीड़ा जनित सीख सिखाने के भाव और चेतावनी सब कुछ है इस अभिव्यक्ति में.

बहुत पसंद आई यह रचना 

हार्दिक शुभकामनाएँ 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 24, 2013 at 9:04am

रचना में निस्स्वार्थ प्रेम की पराकाष्ठा है तो संशय भी. समर्पित हो जाने की आश्वस्ति है तो अपने भाव का गर्व भी. अर्पण का सुख है तो आहत मन की पीड़ा भी.  बहुत खूब

प्रस्तुति अच्छी लगी, आदरणीया गुल सारिकाजी.  बहुत-बहुत बधाई

Comment by Abhinav Arun on July 23, 2013 at 9:07pm
अति सुन्दर हवा के ताज़े झोंके के समान कविता को पढ़कर मुग्ध हुआ ।बहुत बहुत बधाई !!
Comment by Gul Sarika Thakur on July 23, 2013 at 8:45pm

Abhaari hun Aap sabhee .. rachna ke bhaw ne sparsh kiya .. lekhani sarthak huee ...

Comment by annapurna bajpai on July 23, 2013 at 6:29pm

छल को जायज कहा जिसने
वह स्वयं के हाथों छला गया होगा
आनन्द तो तब आए
आंसूओं की बून्द गिरे
और घाव पर नमक की परत चढ जाए
इस नमक का स्वाद
निसन्देह उसने नही चखा होगा ............................ भाव बहुत ही सुंदरता से पिरोये गए है , सच मे अगर घाव देने वाले के घाव पर बूंद गिरे तो मजा आए ।

 

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