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कभी कभी

खामोश हो जाते हैं शब्द।

 

जीवन में

कब अपना चाहा होता है

सब।

 

बहुत कुछ अनचाहा

चलता है संग।

इस दीवार से

झरती पपड़ियाँ;

दरारों में उगते

सदाबहार और पीपल;

गमले में सूखता

आम्रपाली।

 

दिये की रोशनी सहेजने में

जल जाती हैं उंगलियाँ।

 

गाँठ खोलने की कोशिश में

ढूंढे नहीं मिलता

अमरबेल का सिरा।

 

तुम

किसी स्वप्न सी खड़ी

बस मुस्कुराती हो।

 

रेत के घरौंदे

बार बार ढह जाते हैं।

 

मैं बस निहारता रह जाता हूँ

मुँह बिराते अक्षरों को।

             - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Abhinav Arun on July 20, 2013 at 2:46pm
वाह वाह कमाल की प्रस्तुति -

तुम

किसी स्वप्न सी खड़ी

बस मुस्कुराती हो।

 

रेत के घरौंदे

बार बार ढह जाते हैं।

 

मैं बस निहारता रह जाता हूँ

मुँह बिराते अक्षरों को।

शब्द विभोर कर रहे है बहुत बहुत बधाई !!

Comment by Vindu Babu on July 20, 2013 at 1:05pm
गहन भाव पिरोये हैं रचना में आपने आदरणीय।
'अनचाहा' को सटीक प्रतीकों से प्रतिबिम्बित किया है,जो पंक्तियां आदरेया वेदिका जी के अच्छी लगीं वो मुझे भी छू गईं।
सादर
Comment by वेदिका on July 20, 2013 at 11:39am

आपका आभार आदरणीय बृजेश जी! 

आपने मेरी जिज्ञासा को मान दिया!!

सादर !! 

Comment by बृजेश नीरज on July 20, 2013 at 11:35am

आदरणीया वेदिका जी आपका हार्दिक आभार! आपके उत्सावर्धन से बल मिला।
'बिराना' देशज भाषा का शब्द है। इसका अर्थ 'चिढ़ाना' ही होता है।
सादर!

Comment by वेदिका on July 20, 2013 at 11:28am

गाँठ खोलने की कोशिश में

ढूंढे नहीं मिलता

अमरबेल का सिरा।,,

अतुक रचना में गहरे भावो के साथ किया गया प्रयोग मन को छू गया|  

//मुँह बिराते अक्षरों को।// में बिराते शब्द से तात्पर्य चिढाने से होगा, है न! मेरे लिए नया शब्द है|    

दिये की रोशनी सहेजने में

जल जाती हैं उंगलियाँ।,, ह्रदय पर बार बार प्रहार करने वाली रचना !

बधाई स्वीकारिये आदरणीय बृजेश जी!

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