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नवगीत/ फूटी गागर

मन भौंरे सा आकुल है

तुम चंपा का फूल हुई

मैं चकोर सा तकता हूँ

तुम चंदा सी दूर हूई

 

जब पतझड़ में मेघ दिखा

तब यह पत्ता अकुलाया

ज्यों टूटा वो डाली से

हवा उसे ले दूर उड़ी

 

तपती बंजर धरती सा

बूँद बूँद को मन तरसा

जितना चलकर आता हूँ

यह मरीचिका खूब छली

 

सपन सरीखा है छलता

भान क्षितिज का यह मेरा

पनघट पर जल भरने जो

लाई गागर, थी फूटी

              - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश नीरज on July 9, 2013 at 6:21pm

आदरणीय राजेश जी आपका हार्दिक आभार! आपके अनुमोदन से मुझे बल मिला।
सादर!

Comment by राजेश 'मृदु' on July 9, 2013 at 6:18pm

बड़ी सुंदर रचना हुई है आदरणीय बहुत बधाई इस रचना पर, सादर

कृपया ध्यान दे...

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