लोकतंत्र में वोट की ताकत महत्वपूर्ण मानी जाती है और जब इस ताकत का सही दिशा में इस्तेमाल होता है तो इससे एक ऐसा जनमत तैयार होता है, जिससे नए राजनीतिक हालात अक्सर देखने को मिलते हैं। हाल ही में बिहार के 15 वीं विधानसभा के चुनाव में जो नतीजे आए हैं, वह कुछ ऐसा ही कहते हैं। देश में सबसे पिछड़े माने जाने वाले राज्य बिहार में तरक्की का मुद्दा पूरी तरह हावी रहा और प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार का जादू ऐसा चला, जिसके आगे राजनीतिक गलियारे के बड़े से बड़े धुरंधर टिक नहीं सके और वे चारों खाने मात खा गए। हालांकि बिहार में जो चुनावी नतीजे आएं हैं, इसकी उम्मीद शायद नीतिश कुमार और उनके एलायंस एनडीए को भी नहीं रही होगी। नीतिश कुमार की अगुवाई में जदयू तथा भाजपा के गठबंधन ने 243 विधानसभा सीटों में से 206 सीटें जीतकर यह जता दिया है कि तरक्की से जनमत बेहतर ढंग से तैयार होता है। चुनावों में विकास का कार्ड इससे पहले कई राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में खेला जा चुका है, चाहे वह भाजपा शासित राज्य हो, या फिर कांग्रेस शासित।
बिहार के चुनावी माहौल में बरसों से जाति समीकरण हावी रहा है, वह इस बार छह चरणों के चुनाव में कहीं नजर नहीं आया। साथ ही मुस्लिम वोटरों का भी दिल जीतने में नीतिश कामयाब रहे, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि जदयू और भाजपा को पहली बार वहां इतने अधिक वोट मिले हैं। जाति कार्ड पर 15 बरसों तक बिहार में एकक्षत्र राज करने वाले लालू यादव व राबड़ी यादव, नीतिश कुमार द्वारा तरक्की के नाम पर मांगे वोट के आगे कहीं ठहर नहीं सके और उन्हें बिहार के मतदाताओं ने पूरी तरह से नकार दिया। मतदाताओं ने राबड़ी देवी को दोनों सीटों से हार का स्वाद चखाया। यहां उन्होंने यह जताने की कोशिष की है कि अब वे जाति के नाम पर झांसे में आने वाले नहीं है, उन्हें तो बस तरक्की चाहिए। राजद के साथ कंधे से कंधे मिलाकर चलने वाले लोजपा के रामविलास पासवान भी मतदाताओं के वोट की मार से जरूर सबक सीख गए होंगे, क्योंकि जनता अब सब समझने लगी है। बिहार में तो ऐसा लग रहा है, जैसे लोजपा की नाव पूरी तरह डूब रही है, क्योंकि 2009 में हुए 15 वीं लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने रामविलास पासवान को अपनी वोट की ताकत पहले ही बता दी है और उन्हें देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद में भेजने रूचि नहीं दिखाई थी। इस तरह मौका परस्ती की राजनीति से भी उन्हें सबक लेने की जरूरत समझ में आती है।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि बरसों तक बिहार में शिक्षा और कानून व्यवस्था समेत विकास के क्या हालात रहे हैं, हर मामले में बिहार, अंतिम श्रेणी में रहता आया है। पिछला विधानसभा चुनाव नीतिश कुमार ने प्रदेश में अपराधमुक्त राज्य बनाने तथा विकास के नाम पर लड़े और उन पर जनता ने भरोसा भी जताया। इन बीते पांच बरसों में निश्चित ही बिहार में कानून के हालात सुधरे हैं और यह राज्य तरक्की की राह पर अग्रसर हो गया है। इस चुनाव में भी नीतिश कुमार, तरक्की और व्यवस्थित शासन व्यवस्था को मुद्दा बनाकर चुनाव मैदान में उतरे। इस तरह छह चरणों में हुए चुनावों में बिहार की जनता ने तरक्की पर सहमति जताते एनडीए गठबंधन को एक और मौका दिया। मीडिया में पहले से ही यह कयास लगाए जा रहे थे तथा कई रिपोर्ट से बताई जा रही थीं कि बिहार में फिर नीतिश कुमार की सत्ता में वापसी हो रही है। यहां यह बात तो सच है कि बिहार में इस तरह के परिणाम की उम्मीद न ही राजद प्रमुख लालू यादव को थी और न ही, खुद नीतिश कुमार को। वे यह तो भांप गए थे कि वे दोबारा बिहार की सत्ता पर काबिज हो रहे हैं, किन्तु उन्हें मतदाताओं का इतना रूझान मिलेगा, यह तो उनके मन में भी दूर-दूर तक नहीं रहा होगा। इस चुनाव में कांग्रेस, राजद तथा लोजपा का सूफड़ा साफ होता नजर आया, क्योंकि जितनी सीटें इन पार्टियों को मिली हैं, उससे तो यह भी सवाल उठने लगा है कि आखिर ये पार्टियां कैसे विपक्ष की भूमिका निभाएंगी ? कुछ अन्य पार्टी बसपा और निर्दलीय प्रत्याशी तो कहीं ठहरे ही नहीं। बिहार के चुनाव में सबसे ज्यादा बुरे हालात में कोई पार्टी रही तो वह है, कांग्रेस। कांग्रेस ने इस चुनाव में पिछले विधानसभा चुनाव के हिसाब से 5 सीटें गंवा दी हैं और कांग्रेस के केवल चार ही प्रत्याशी जीत का सेहरा बांध सके। दिलचस्प बात यह है कि बिहार चुनाव में पूरी 243 सीटों पर कांग्रेस ने अपने प्रत्याशी उतारे थे और कांग्रेस ने पार्टी महासचिव राहुल गांधी के एकला चलो नीति के तहत चुनाव में खूब हाथ आजमाया, किन्तु यह कांग्रेस के लिए ऐसा चुनाव साबित हुआ, जो पार्टी के सबसे खराब प्रदर्शन के रूप में माना जा रहा है। इतिहास के पन्नों में देखें तो देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस की हालत, शायद ही कभी इस तरह की हुई होगी, क्योंकि हाई-प्रोफाइल सीटों और बड़े नामों को जिताने खुद कांग्रेस के युवराज माने जाने वाले राहुल गांधी तथा यूपीए प्रमुख श्रीमती सोनिया गांधी ने दर्जनों सभाएं ली तथा कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। साथ ही प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने भी कई सभाएं लीं, मगर इनकी सभाओं में जुटी हजारों की भीड़ कांग्रेस के लिए वोट में नहीं बदल सकी।
बिहार चुनाव के बाद तरक्की के मुद्दे की बात करें तो यही है कि अब कोई भी पार्टी, विकास को दरकिनार नहीं कर सकती। चुनावों में बरसों से कायम जाति समीकरण का जोर भले ही कुछ इलाकों में हो, लेकिन बिहार चुनाव के नतीजे के बाद इस बात पर मुहर लग गई है कि जनता भी तरक्की और शांति चाहती है। यही कारण है कि बिहार की जनता ने नीतिश कुमार पर दोबारा भरोसा जताया है। ऐसे में बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार पर अब दोहरी जिम्मेदारी बन गई है कि जनता के विश्वास पर खरे उतरें और बिहार को विकास की एक ऐसी दिशा में ले जाएं, जहां बिहार की जनता के साथ, उन्हें खुद को भी सुकून मिलंे। एक बात और भी है कि बीते कुछ बरसों में आधा दर्जन राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए। जिन-जिन प्रदेशों में व्यक्ति व जाति के बजाय, विकास के नाम पर जनता से वोट मांगे गए, वहां-वहां जनता का समर्थन मिला। चाहे वह 2008 में हुए दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान के विधानसभा चुनाव हो। इन राज्यों में जनता ने तरक्की पर अपनी मुहर लगाई और विकास के नाम पर ऐसा जनमत बना, जिसके आगे किसी तरह के और मुद्दे बचे ही नहीं। आम जनता को राजनेता भले ही किसी तरह इस्तेमाल कर लेने की मंशा रखते हों, मगर यह बात भी सही है कि पब्लिक भी सब जानती तथा समझती है और अब वह यह समझदार नजर आ रही है कि बिना तरक्की के कुछ नहीं हो सकता। यही कारण है कि देश में हो रहे अधिकांश चुनावों में तरक्की के नाम पर जनमत की ताकत दिखाई दे रही है, जो भारतीय लोकतंत्र की नींव मजबूती का आधार साबित हो रही है। इस तरह उन राजनेताओं को सबक सीखने की जरूरत आन पड़ी है कि जो राजनीति केवल जाति कार्ड खेलकर करते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं चल सकता, क्योंकि जनता को तो बस अब तरक्की चाहिए।
राजकुमार साहू
लेखक इलेक्टानिक मीडिया के पत्रकार हैं
जांजगीर, छत्तीसगढ़
मोबा - 098934-94714
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