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मन की किताब के कुछ पन्ने

       मन की किताब के कुछ पन्ने

       तुमको सुनाती हूँ मैं

       कहीं पे हैं खुशियाँ खुद को समेटे

       और गम हैं देखो चादर में लिपटे

       सलवटें हजारों दर्द की पड़ी हैं

        आशा की किरण पट खोले खड़ी है

        खिड़कियों से उमंगें पवन बन के आती

        देखो झरोखों से फिर जा रही हैं

       कमरे के कोने में छिपी बैठी चाहत

       लाल सुर्ख साड़ी में मुस्कुराहट शरमा रही है

       हंसी फूलों में खिलखिला रही है  

 

 

 

 

               मौलिक व अप्रकाशित    

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Comment

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Comment by Pragya Srivastava on June 17, 2013 at 4:51pm

विजय मिश्र जी,     शुक्रिया

Comment by विजय मिश्र on June 17, 2013 at 12:52pm
" लाल सुर्ख साड़ी में मुस्कुराहट शरमा रही है " - बहुत सुंदर . प्रज्ञाजी साधुवाद .
Comment by Pragya Srivastava on June 17, 2013 at 10:30am

शुक्रिया जिेतेंद्र जी

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 16, 2013 at 7:47pm
आदरणीया...'सुंदर भावनात्मक रचना का प्रस्तुतिकरण ...शुभकामनाऐं

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