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मेरे अपने कब थे तुम

मेरे अपने  कब थे तुम

गैरों के तुम सदा हुए 
सब्जबाग था प्यार तुम्हारा 
सारे वादे दगा हुए
दिल की बातें कह डाली है 
अपने कर्जे अदा हुए 
तुम निर्दोष हमेशा क्यों 
हम दोषी सर्वदा हुए 
मुझको ख़ारिज करने वाले 
ले हम तो अब दफा हुए 
                        अंजनी 
मौलिक एवम अप्रकाशित 

Views: 629

Comment

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Comment by शुभांगना सिद्धि on June 8, 2013 at 2:24am

बहुत अच्छा 

Comment by Priyanka singh on June 8, 2013 at 1:05am

खूब .....

Comment by Anjini Rajpoot on June 7, 2013 at 7:11pm
आप सब का धन्यबाद मुझे बहुत अच्छा महसूस हुआ अपनी कविता यहा प्रस्तुत कर के 
मै और अच्छा लिखने की कोशिश करुगी एक बार फिर से धन्यवाद  
Comment by बृजेश नीरज on June 7, 2013 at 2:36pm

यदि रचना को पोस्ट करने से पहले दुबारा देखा होता तो शायद सुधर कर और सुन्दर रूप में भाव व्यक्त हो जाते। सिर्फ तुक बिठाने के लिए शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिए। प्रयोग किए जाने वाले शब्द की जरूरत पंक्ति को होनी चाहिए।
आपके इस प्रयास पर ढेरों बधाई!
सादर!

Comment by दिव्या on June 7, 2013 at 12:46pm
सब्जबाग था प्यार तुम्हारा 
सारे वादे दगा हुए........ बहुत खूब अंजनी जी 
Comment by Roshni Dhir on June 7, 2013 at 12:28pm

bahut khub

Comment by aman kumar on June 7, 2013 at 10:58am

बधाई आपको

Comment by Shyam Narain Verma on June 7, 2013 at 10:56am
बहुत सुन्दर...बधाई स्वीकार करें ………………

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 7, 2013 at 9:41am

भावुकता को शब्द मिलें हैं... उसे तथ्य दें

शुभम्

Comment by वेदिका on June 7, 2013 at 12:21am

बहुत बढ़िया रचना प्रस्तुत की ...अन्जिनी जी!

मेरे अपने थे ही कब ...तुम गैरों के सदा हुए ...बखूबी !

कृपया ध्यान दे...

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