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ग़ज़ल// कोई मौसम नहीँ होता!

किसी की याद आने का,कोई मौसम नहीँ होता,
अश्क फुरकत मेँ बहाने का,कोई मौसम नहीँ होता!


कौन जाने कब वफा से,बेवफा हो जाये को

फ़रेब इश्क मेँ खाने का,कोई मौसम नहीँ होता!

राहे उल्फ़त मेँ देखा है,हमने आसियां बनाकर,
दिल पे चोट खाने का,कोई मौसम नहीँ होता!

उम्र भर का निभाई साथ कोई,यह ज़रुरी तो नहीँ,
पल मेँ बिछड़ जाने का,कोई मौसम नहीँ होता!

अजनबी सी राहोँ मेँ हमसफर मिल जाते हैँ,
किसी को अपना बनाने का,कोई मौसम नहीँ होता!

भूलकर गिले शिकवे चलो मोहब्बत को आम करेँ,
चिराग उल्फ़त के जलाने का,कोई मौसम नहीँ होता!

हो ही जाती है मोहब्बत,राहोँ मेँ ज़िँदगी की,,
किसी को चाहने का 'आबिद' कोई मौसम नहीँ होता!!

(मौलिक व अप्रकाशित)
___आबिद अली मंसूरी

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 7, 2013 at 11:34am
आदरणीय आबिद साहब, दिली शुभकामनाऐं स्वीकार कीजीऐ...वाह! क्या बात है..'राहे उल्फत में हमने देखा है आशियां बनाकर, दिल पे चोट खाने का कोई मौसम नहीं होता '...उम्र भर का निभाई साथ कोई यह जरूरी तो नहीं, पल में बिछड़ जाने का, कोई मौसम नहीं होता..'बेहतरीन उम्दा ..बहुत खूब आबिद साहब...शुभकामनाऐं कुबूल कीजीऐ

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 7, 2013 at 11:32am

आप इस मंच पर अभी तक सम्पन्न तरही मुशायरों की कड़ियों की भूमिकायें देख जाइये और तरह (वह मिसरा जिस के आधार पर पूरी ग़ज़ल कहनी होती है) के विन्यास को समझने का प्रयास कीजिये. फिर उस मुशायरे में आधारित ग़ज़लों को देखें कि वे कैसे लिखे गये हैं, आपको बहुत सहुलियत मिलेगी. ज्ञातव्य हो, ओबीओ पर तरही मुशायरे के अबतक कुल ३५ अंक सम्पन्न हो चुके हैं. 

इसके अलावे ग़ज़ल के ऊपर इसी ओबीओ पर कई आलेख हैं. ग़ज़ल की कक्षा के नाम से एक समूह ही है, उसको पढ़ जाइये. 

का चुपि साध रहा बलवाना .. ????

शुभेच्छाएँ

Comment by Abid ali mansoori on June 7, 2013 at 10:39am
आदरणीय श्री सौरभ जी,हार्दिक आभार!
मैँ अभी इस विध्या को सीखने और समझने के लिए प्रयासरत हूं और फिर मुझे इतना ज्ञान भी नहीँ,मगर हां मुझे खुशी होगी कि मेरी इस ग़ज़ल के मिसरोँ का वज़्न आप या आदरणीय वीनस जी यहां प्रस्तुत कर देँ तो मुझे समजने मेँ आसानी होगी और सीखने मेँ मदद मिलेगी,एक बार फिर पुनः आभार आपका!

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 7, 2013 at 9:30am

आबिद अली मंसूरी साहब, बेहतर हो आप अपनी ग़ज़ल के मिसरों के वज़्न को अवश्य ही ग़ज़ल के साथ ही प्रस्तुत करें. इससे दो लाभ होंगें..

१.  आपको मालूम रहेगा कि आपकी ग़ज़ल के मिसरे का वज़्न क्या तय है.

२.  वे पाठक जो इस मंच पर ग़ज़ल की विधा समझ रहे हैं, वे आपकी ग़ज़ल को शिल्प की दृष्टि से समझ सकेंगे.

इस प्रयास के लिए बधाई.. .

Comment by Abid ali mansoori on June 7, 2013 at 4:20am
बहुत शुक्रिया आदरणीय वीनस जी,इस स्नेह,अमूल्य प्रतिक्रिया एवं उचित मार्गदर्शन के लिए,हार्दिक आभार सर!
Comment by वीनस केसरी on June 7, 2013 at 1:10am

भूलकर गिले शिकवे चलो मोहब्बत को आम करेँ,
चिराग उल्फ़त के जलाने का,कोई मौसम नहीँ होता!
वाह भाई क्या कहने ,,,,
हार्दिक बधाई


आख़िरी शेर को छोड़ कर सभी अशआर में रदीफ़ कवाफ़ी को बढ़िया निभा ले गये हैं ...
अब बहर के प्रति भी आग्रही बनिए तो एक वृत्त पूरा हो ....

Comment by Abid ali mansoori on June 6, 2013 at 9:59pm
हार्दिक आभार आदरणीया महिमा जी आगे भी आपकी अमूल्य प्रतिक्रियाओँ का इन्तेज़ार रहेगा!
Comment by MAHIMA SHREE on June 6, 2013 at 9:53pm

वाह!! बहुत ही  उम्दा प्रस्तुति... बधाई आपको

Comment by Abid ali mansoori on June 6, 2013 at 9:50pm
Aadarniya coontee ji hardik dhanyavad aapka is amulya pratikriya ke liye!
Comment by coontee mukerji on June 6, 2013 at 9:26pm

अजनबी सी राहोँ मेँ हमसफर मिल जाते हैँ,
किसी को अपना बनाने का,कोई मौसम नहीँ होता!...............खूब कही .आबीद जी /सादर

...

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