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साथी!
जिस राह पे चलकर तुम जाते
वह राह मनचली
क्यों मुड़ के लौट नही आती ...

ये बैरन संध्या
हो जाये बंध्या
न लगन करे चंदा से
न जन्में शिशु तारे
बस यहीं ठहर जाये

ये शाम मुंहजली
जो मुड़ के लौट नही पाती ...

श्वासों के तार
ताने पल पल
न टूट  जायें
ये अगले पल
ले जाओ दरस  हमारा
दे जाओ दरस तुम्हारा
यह लिखती पत्र पठाती

यह राह मनचली
जो मुड़ के लौट नहीं पाती ...

ये राह दिवानी है
हमारे पिया गये जिस पर
न लौटे अब तक हाय
हमारा पिया हिरानी है
तेरी रज लूँ मै साथे!
मिला दे हमको पाथे
विनय सुने न हाय

हँसे जाती पगली
यह राह मनचली 
जो मुड़ के लौट नही पाती ...

तेरा गाली से श्रंगार करूं
बड़ा निठुर व्यवहार करूं
 खो दूँ तुझको
खुरपी लेकर फरुआ से
 महा प्रहार करूं
न ये न करना भोली
री! राह करे है ठिठोली
देखा तो पिया खड़े सम्मुख
वह भूल गयी सब वियोग दुःख 
ले रही बलैयाँ सैयाँ की
करती राह की कजली

यह राह मनचली
जो मुड़ के लौट यहीं आती ...

                             गीतिका 'वेदिका'   

 "मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by वेदिका on June 25, 2013 at 1:36am

आपका अत्यंत आभार आदरणीय किशोर कान्त जी! 

Comment by वेदिका on June 25, 2013 at 1:36am

इंतजार और विरह की पराकाष्ठा 
दर्शाती पंक्तियां..// आदरणीय माथुर जी! आप ने रचना में अंतर्निहित तत्व को स्पर्श किया 

आभार आपका !!

Comment by D P Mathur on June 21, 2013 at 8:09am

तेरा गाली से श्रंगार करूं
बड़ा निठुर व्यवहार करूं
खो दूँ तुझको
खुरपी लेकर फरुआ से
महा प्रहार करूं
इंतजार और विरह की पराकाष्ठा
दर्शाती पंक्तियां..

Comment by Kishorekant on June 11, 2013 at 10:04pm
ये कैसा मीठा परिचय
अवकाश में ही हो गया
शब्द मिलते नित्य लेकिन
मैं राह तकता रह गया
Comment by वेदिका on June 9, 2013 at 2:12pm

शुक्रिया आदरणीया महिमा जी! 

 

Comment by वेदिका on June 9, 2013 at 2:10pm

आभार आदरणीय राजेश झा जी!

रचना पर विचार प्रकटीकरन के लिए  

Comment by राजेश 'मृदु' on June 7, 2013 at 2:44pm

ये बैरन संध्या
हो जाये बंध्या
न लगन करे चंदा से
न जन्में शिशु तारे
बस यहीं ठहर जाये

ये शाम मुंहजली
जो मुड़ के लौट नही पाती ...

बड़ा ही मीठा उलाहना, सुंदर रचना के लिए ढेरों बधाई

Comment by वेदिका on June 7, 2013 at 1:33am

आपने तो संयोग और वियोग की परिभाषा सुघड़ता से रच दी! 

आप सही कहते है, संयोग के क्षण में सारी दुनिया ही सुंदर लगती है और वियोग में सुन्दरता भी सुंदर नही लगती। 
सुंदर सी प्रतिक्रिया के लिए अनन्य आभार  आदरनीय बृजेश जी!
Comment by बृजेश नीरज on June 6, 2013 at 10:30pm

वियोग में प्रकृति की हर अंगड़ाई, हर दृश्य मन को अखरते ही हैं और संयोग के क्षण आते ही बबूल में हरीतिमा दिखने लगती है। इन भावों को आपने बहुत सुन्दरता से पिरोया है अपनी रचना में। आपको ढेरों बधाई इस रचना पर।

Comment by वेदिका on June 6, 2013 at 1:31pm

विश्वास अगर है तो ही है नई है तो वो अविश्वास ...

अनेक अनेक आभार आपका आदरणीय सौरभ जी 

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