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तुमसे मिलने का असर है मुझ पर --- मीना पाठक

कभी चाह थी बहुत दिल मे 
कि छू लूँ मैं भी बढ़ा के हाथ 
मिट्टी,हवा,पानी इन सब को 
पीछे छोड़ शून्य को 
जिंदगी को चाह थी भरपूर जीने की
थी ललक, कुछ भी कर गुजरने की 
जिंदगी एक किताब खूबसूरत थी 
जिसे पढ़ने की प्यार से तमन्ना थी 

फिर घेरा ऐसा बादलों ने निराशा के 
खुद से बातें करती,हंसती,रोती,बावली 
सी, ना चाह रही जीने की ना ललक 
कुछ करने की ...........................
बिखरी हुई सी ज़िंदगी,पन्ना-दर-पन्ना 
पलती गई यूँ ही, ज़िंदगी रेत की तरह 
हाथ से फिसलती गई

जाग उठी है अब फिर से वही पुरानी 
चाह जीने की,ललक कुछ करने की 
जिंदगी की खूबसूरत किताब को 
तमन्ना प्यार से पढ़ने की 
मिट्टी,हवा,पानी सब को पीछे छोड़ हाथ 
बढ़ा कर शून्य को छूने की , शायद ये 
तुमसे मिलने का असर है मुझ पर ||


(मौलिक /अप्रकाशित)

*चित्र - साभार गूगल 

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Comment by सतवीर वर्मा 'बिरकाळी' on March 1, 2013 at 11:05am
जब गहन निराशा के सागर में गोते लगाते हुए हम जीवन की आशा छोङ देते हैं तब कोई आशा की किरण तिनका बनकर हमारा हाथ पकङती है और हमें निराशा रुपी सागर से निकालकर आशा रुपी द्वीप पर पहुँचा देती है। इसी आशा निराशा का ही नाम जीवन है जिसका चक्र हर जीव के साथ पूरी उम्र भर चलता रहता है।

बहुत अच्छी भावाभिव्यक्ति मोहतरमा जी, धन्यवाद।

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