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ख़ता करके मुकर जाने की लत अच्छी नहीं लगती,
हमें इन लोगों की यारी, कोई यारी नहीं लगती ।

सियासत कर रहे हैं जो गरीबों का लहू पीकर,
उन्हें फिर से जिताने में, समझदारी नहीं लगती ।

मेरी आँखें तेरे दर पर हैं ठुकराई गयी, तब से
किसी की आँख की बूँदें, हमें मोती नहीं लगती।

करीने से सज़ाकर थे रखे कुछ काँच के टुकड़े,
मगर अब काँच की चूड़ी भी कुछ भोली नहीं लगती ।

बचाकर रखती थी चादर में, बर्फीली हवाओं से
माँ, अब मुझको शहर में उस कदर शर्दी नहीं लगती ।

निकलते गाँव से हमने रखा था साथ कुछ मीठा,
'सलिल', गुड की डली मीठी, यहाँ मीठी नहीं लगती ।

------------- आशीष नैथानी 'सलिल'

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Comment by sanjiv verma 'salil' on January 21, 2013 at 4:48pm

गुड की डली की मिठास समाये यह गजल मन भाई.

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